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________________ ६८ योगकल्पलता सर्वोत्कृष्टं हि संसारे सुखं पौगलिकं तथा। आत्मज्ञानं नमस्कार! मतं ते परमं फलम्।।२४।। हे! नमस्कार, इस संसार में सर्वोत्कृष्ट पुद्गलजन्य सुख और आत्मज्ञान ये तुम्हारे ही फल है।।२४।। आत्मज्ञानेन तृप्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः। जपात्ते हि नमस्कार! निःस्पृहं मानसं भवेत्।।२५।। हे! नमस्कार, आत्मज्ञान से तृप्त नित्य और अनित्य के विवेकियों का मन तुम्हारे जप से निस्पृह हो जाता है।।२५।। भोगमोक्षनिराकाङ्क्षी देहेऽपि विगतस्पृहः। त्वत्प्रभावान्नमस्कार! जायते मुनिपुङ्गवः।।२६।। हे! नमस्कार आपके ही प्रभाव से श्रेष्ठ मुनि लोग भोग और मोक्ष के निराकाङ्क्षी होते हैं, शरीर के प्रति भी निस्पृह होते है।।२६।। अर्थभावनमात्रेण पदानां ते मुहुर्मुहुः। भवत्येव नमस्कार! निर्विषयं स्थिरं मनः।।२७।। हे! नमस्कार तुम्हारे पदों के अर्थमात्र की बार-बार चिन्ता करने से मन निर्विषय होकर स्थिर हो जाता है।।२७।। सञ्जायते लयावस्था द्वैताद्वैतविवेकिनाम्। महिम्ना ते नमस्कार! निर्विकल्पसुखप्रदा।।२८।। हे! नमस्कार, तुम्हारी महिमा से द्वैताद्वैत विवेकियों को निर्विकल्प सुख देनेवाली लयावस्था होती है।।२८।। प्राप्यते खलु संसारे निर्विकल्पेन चेतसा। प्रसादात्ते नमस्कार! देहातीतदशा सदा।।२९।। हे! नमस्कार तुम्हारी कृपा से निर्विकल्प चित्त से संसार में लोगों को देहातीत दशा की प्राप्ति होती है।।२९।।
SR No.009267
Book TitleYogkalpalata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirish Parmanand Kapadia
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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