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योगकल्पलता
आत्मनिश्चयवह्निस्त्वमज्ञानगहने खलु।
अत एव नमस्कार! त्वां सेवेऽहं प्रतिक्षणम्।।१२।। हे! नमस्कार हर क्षण तुम्हारी सेवा करता हूँ कारण कि तुम अज्ञानरूप अंधकार में आत्मनिश्चयरूप वह्नि के समान हो।।१२।।
नामादिभेदतो नित्यं पञ्चानां परमेष्ठिनाम्।
प्रणिधानं नमस्कार! मोक्षसिद्धिप्रदं ध्रुवम्।।१३।। हे! नमस्कार नाम आदि के भेद से पञ्चपरमेष्ठि का प्रणिधान निश्चित ही मोक्ष देता है।।१३।।
पदस्थध्यानसिद्ध्यर्थमेकाग्रमनसा सदा।
नमामि त्वां नमस्कार! सर्वज्ञानप्रकाशक!।।१४।। हे! सभी ज्ञान के प्रकाशक! नमस्कार! पदस्थ ध्यान की सिद्धि के लिए एकाग्र मन से सदा तुम्हें नमस्कार करता हूँ।।१४।।
विशुद्धचेतनारूप! योगीन्द्रकल्पपादप!।
प्रसीद त्वं नमस्कार! सर्वचक्रविभेदक!।।१५।। हे! नमस्कार, तुम विशुद्ध चेतनारूप हो, योगियों के लिये तुम कल्पवृक्ष हो, सभी चक्र को भेदनेवाले, नमस्कार! तुम प्रसन्न होवो।।१५।।
सूक्ष्मनाडीगते शुद्धे सदैवोर्ध्वविहारिणि।
त्वयि मेऽस्तु नमस्कार! महाभक्तिरहर्निशम्।।१६।। सदा ऊर्ध्व विहार करनेवाले, सूक्ष्म नाडी में स्थित, शुद्धस्वरूप नमस्कारमंत्र! तुम्हें अहर्निश भक्तिपूर्वक मेरा नमस्कार हो।।१६।।
सुसूक्ष्मध्वनिरूपस्त्वं सर्वकर्मविदारकः।
अतस्त्वां हि नमस्कार! योगीन्द्राः संश्रिता ध्रुवम्।।१७।। हे! नमस्कार तुम सूक्ष्म से भी सूक्ष्म ध्वनिरूप हो, सभी कर्मों को नाश करनेवाले हो, अतः योगी लोक तुम्हारे ही आश्रय में रहते हैं, तुम्हे मेरा नमस्कार है।।१७।।