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योगकल्पलता
दूरे स्थिताऽपि नूनं त्वं रसशास्त्रविशारदा।
आशे! स्मरणमात्रेण परमानन्ददायिनी।।६।। आशा तुम वास्तव में रसशास्त्र में निपुण हो, दूर रहकर भी ध्यानमात्र से परमानन्द को देनेवाली हो। ।।७६।।
आशे! सञ्जीवनी लोके महाजाड्यापहारिणी।
पञ्चाशद्वर्णरूपा त्वं सर्वसारस्वतप्रदा।।७७।। हे आशे! तुम महाअज्ञानता का हरण करनेवाली, सभी विद्याओं को देनेवाली पचास वर्णों से युक्त इस लोक में संजीवनी हो। ।।७७।।
सामरस्यसुखं दिव्यं सर्वोत्कृष्टं हि तत्त्वतः।
आशे! बहिर्मुखैस्तत्तु प्राप्यते न कदाचन।।७८।। हे आशे! सभी तत्त्वों में अद्भुत एवं सर्वोत्कृष्ट समरसता है, जिसे बहिर्मुखी प्रवृत्तिवाले कभी समता को नहीं प्राप्त कर सकते। ।।७८।।
आशे! क्षणाच्चिदुल्लासस्सामरस्याद्धि जायते।
तस्माच्छिवार्चनं मन्येऽहं सदेहे न दुष्यते।।७९।। हे आशे! क्षणभर के मन की प्रसन्नता से समरसता होती है तथा उससे शिव की अर्चना (मोक्षमार्ग प्रशस्त) होती है, मेरा मन मानता है कि ऐसी आत्मा सशरीरी होने में भी कोई दोष नहीं है। ।।७९।।
निर्गुणा शक्तिरूपा त्वं नामरूपविवर्जिता।।
आशे! लोकोपकाराय विलासस्सगुणोऽपि ते।।८०।। हे आशे! वस्तुतः तुम रूप, नाम वगैरे से हीन निर्गुण शक्तिरूपा हो, लेकिन लोक-उपकार के लिए सगुण और चेष्टावाली होती हो। ।।८।।
आराधनं तवैवाशे! सामरस्यसुखास्पदम्।
चिदानन्दप्रदं मन्ये ब्रह्मविद्याप्रकाशकम्।।८१।। हे आशे! मेरा मानना है कि तुम्हारी ही आराधना समरसता का स्थान है, चिदानन्द देनेवाली है एवं ब्रह्मविद्या की प्रकाशक है। ।।८१।।