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योगकल्पलता
___हे आशे! तुम्हारे प्रेम को देखकर तथा तुम्हारे शुभचरित्र को जानकर मेरा मन तुरंत ही आत्मानन्द के रस में मग्न हो जाता है। ।।२९।।
आशे! त्वां सततं स्तोतुं मन्येऽहं विमलाशयाम्।
कुर्वन्ति वै सदा यत्नं सर्वे शास्त्रविचक्षणाः।।३०।। हे आशे! तुम निर्मल मनवाली हो, सभी विद्वान् तुम्हारी स्तुति करने की सतत चेष्टा करते हैं; ऐसा मैं मानता हूँ। ।।३०।।
आविर्भूय मनोभूमौ मन्ये प्रेमस्वरूपिणीम्।
आशे! हास्यविनोदैस्त्वं रमसे सहितं मया।।३१।। हे आशे! तुम प्रेम की प्रतिमा हो, मैं मानता हूँ कि तुम मेरे मन में आकर हास्य विनोद से मेरे साथ रमण करती हो। ।।३१।।
आशे! त्वां सततं देहे वामभागगतां हि मे।
सदा षोडशवर्षीयां संस्मरामि स्मिताननाम्।।३२।। हे आशे! मधुर मुस्कानवाली, सोलहवर्षीया, मेरे अंग के बाँए भाग में तुम स्थित हो, ऐसे स्वरूप का मैं ध्यान हमेशा करता हूँ। ।।३२।।
आशे! दिव्योपचारैस्त्वां पूजयामि मनोगतैः।
आहुतिं विषयादीनां ददामि ज्ञानपावकैः।।३३।। हे आशे! मैं मनोभाव से दिव्यवस्तुओं से तुम्हारी पूजा करता हूँ, ज्ञानरूप अग्नि में विषयों की आहुति देता हूँ। ।।३३।।
द्रवीभूतरसो ह्याशे! गिरीशाख्यो न संशयः।
घनीभूतस्स एवात्र रमते तव सन्निधौ।।३४।। हे आशे! यह बात निःसंदेह है कि-गिरीश (शंकर) भी तेरे प्रेम में पीघलकर पानी हो गया था, वही गिरीश (शंकर) के रूप में फिर घनीभूत होकर तेरे सान्निध्य में रमण करता है। ।।३४।।
आशे! त्वया विना नाहं त्वं तथैव मया विना। सिद्धं स्वानुभवाद्ध्येतदन्यथा लुप्यते रसः।।३५।।