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अष्टमं परिशिष्टम्
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अनुभवे। अव्याबाध सुख ते प्रदेशे प्रदेशें अनंतो छ। उक्तं च उव्ववाइसूत्रे
सिद्धस्स सुहोरासि सव्वद्धा पिण्डियं जह वज्जा। सोणंतवग्गो भइयो सव्वागासे न माइज्जा॥ इति वचनात्। ए रीतें परमानंद सुख भोगवता रहे छ। सादि अनंतकाल पर्यंत परमात्मापणे रहे छे। तो एहिज कार्य सर्व भव्यने करवो। ते कार्यनो पुष्ट कारण श्रुताभ्यास छ। ते श्रुताभ्यास करवा माटे ए द्रव्यानुयोग नय स्वरूप लेशथी कह्यो। ते जाणपणो जे गुरुनी परंपराथी हुं पाम्यो ते गुर्वादिकनी परंपराने संभारुं छु।
(काव्य) गच्छे श्रीकोटिकाख्ये विशदखरतरे ज्ञानपात्रा महान्तः, सूरिश्रीजैनचन्द्रा गुरुतरगणभृत्शिष्यमुख्या विनीताः। श्रीमत्पुण्यात्प्रधानाः सुमतिजलनिधिपाठकाः साधुरङ्गाः, तच्छिष्याः पाठकेन्द्राः श्रुतरसरसिका राजसारा मुनीन्द्राः॥१॥(शार्दलविक्रीडितम्) तच्चरणाम्बुजसेवालीना: श्रीज्ञानधर्मधराः। तच्छिष्यपाठकोत्तमदीपचन्द्राः श्रुतरसज्ञाः॥२॥(आर्या) नयचक्रलेशमेतत्तेषां शिष्येण देवचन्द्रेण। स्वपरावबोधनार्थं कृतं सदभ्यासवृद्ध्यर्थम्॥३॥ शोधयन्तु सुधियः कृपापराः शुद्धतत्त्वरसिकाश्च पठन्तु। साधनेन कृतसिद्धिसत्सुखाः परममङ्गलभावमश्नुते॥४॥
॥इति श्रीनयचक्रविवरणं समाप्तम्।।
(दोहा) सुक्ष्मबोध विणु भविकने, न होये तत्त्व प्रतीत। तत्त्वालंबन ज्ञान विण, न टले भवभ्रमभीत॥१॥ तत्त्व ते आत्मस्वरूप छे, शुद्धधर्म पण तेह। परभावानुगत चेतना, कर्मगेह छे एह॥२॥ तजी परपरिणतिरमणता, भज निजभाव विशुद्ध। आत्मभावथी एकता, परमानन्द प्रसिद्ध॥३॥ स्याद्वाद गुणपरिणमन, रमता समतासंग। साधे शुद्धानंदता, निर्विकल्प रसरंग॥४॥ मोक्षसाधन तणु मूल ते, सम्यग्दर्शनज्ञान। वस्तुधर्म अवबोध विणु, तुसखंडन समान।।५॥ आत्मबोध विणु जे क्रिया, ते तो बालकचाल। तत्त्वार्थनी वृत्तिमें, लेजो वचन संभाल॥६॥ रत्नत्रयी विणु साधना, निष्फल कहा सदैव। लोकविजय अध्ययनमें, धारो उत्तमजीव॥७॥ इंद्रिविषय आसंसना, करता जे मुनिलिंग। खूता ते भवपंकमें, भाखे आचारांग।।८॥ इम जाणी नाणी गुणी, न करे पुद्गल आस। शुद्धात्मगुणमें रमे, ते पामे सिद्धिविलास॥९॥ सत्यार्थ नयज्ञान विनूं, न होये सम्यग्ज्ञान। सत्यज्ञान विणु देशना, न कहे श्रीजिनभाण॥१०॥ स्याद्वादवादी गुरु, तसु रस रसिया शिष्य। योग मिले तो निपजे, पूरण सिद्ध जगीस॥११॥ वक्ता श्रोता योगथी, श्रुतअनुभव रस पीन। ध्यानध्येयनी एकता, करता शिवसुख लीन॥१२॥ इम जाणी शासनरुचि, करजो श्रुतअभ्यास। पामी चारित्रसंपदा, लेहेसो लीलविलास॥१३॥ दीपचंद्र गुरुराजने, सुपसायें उल्लास। देवचंद्र भविहितभणी, कीधो ग्रंथ प्रकाश॥१४॥ सुणसे भणसे जे भविक, एह ग्रंथ मनरंग। ज्ञानक्रिया अभ्यासतां, लहेशे तत्त्वतरंग।।१५।। द्वादसार नयचक्र छे, मल्लवादिकृत वृद्धा सप्तशति नय वाचना, कीधी तिहां प्रसिद्ध॥१६॥ अल्पमतिना चित्तमें, नावे ते विस्तार। मुख्यथलनयभेदनो, भाख्यो अल्प विचार॥१७॥ खरतर मुनिपति गच्छपति, श्रीजिनचंद्रसूरीश। तास शिष्य पाठकप्रवर, पुन्यप्रधान मुनीश॥१८॥ तसु विनयी पाठकप्रवर, सुमतिसागर सुसहाय। साधुरंग गुणरत्ननिधि, राजसार उवज्झाया॥१९॥ पाठक ज्ञानधर्म गुणी, पाठक श्रीदीपचंदा तास शीष्य देवचंद्र कहे भणतां परमानंद॥२०॥
॥इति श्रीनयचक्रविवरणं समाप्तम्।।