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________________ अष्टमं परिशिष्टम् १७५ सत् कहेता छतापणे चैतन्य कहेता जाणपणो ए बे धर्म मध्ये एक धर्म पक्ष मुख्यपणे गणे अने बीजाने गौणपणे गवेषे ए रीतें नैगमनय जाणवो। इहां चैतन्य नामे जे व्यंजनपर्याय तेने प्रधानपणे गणे केमके चैतन्यपणो ते विशेष गुण छे अने सत्त्व नामा व्यंजन पर्याय छे ते सकल द्रव्य साधारण छे ते माटे तेने गौणपणे लेखवे ए नैगमनो प्रथम भेद कह्यो। तथा वली वस्तुपर्यायवद् द्रव्यम् एम बोलवू ते धर्मीनो नैगम छे इहां पर्यायवद् द्रव्यम् एम वस्तु छे। इहां द्रव्यनो मुख्यपणो वली वस्तुने पर्यायवंत कहेवू ते वस्तुनो गौणपणो अने पर्यायनो मुख्यपणो इहां उभयगोचरपणा माटे। ए नैगमनो बीजो भेद कह्यो। क्षणमेकः सुखी विषयासक्तो जीव इति धर्मधर्मिणोरिति। इहां विषयासक्त जीवाख्य जे धर्मिना मुख्यताना विशेषपणाथी सुखलक्षण धर्मनी प्रधानता ते विशेषपणे करीने धर्मधर्मिने आलंबने एत्रीजो नैगम। जेवारे धर्म तथा धर्मि ए बेने अवलंबे ग्रहण करे तेवारे संपूर्ण वस्तुनो ग्रहण थयो, तेवारे ए ज्ञानने प्रमाण कह्यो। तिहां उत्तर द्रव्य पर्याय ते बेहुने प्रधानपणे अनुभवतां ते ज्ञान प्रमाण थाय। इहां बे पक्षने विषे एकनी गौणता बीजानी मुख्यता लइने ज्ञान थाय छे ते माटे नय कहिये। तथा वली सूक्ष्मनिगोदि जीव ते समान सत्तावंत छे अथवा अयोगी केवली जिन तेने संसारी कहेवू ते अंशनैगम। हवे नैगमाभास कहे छ। वस्तुमां धर्म अनेक छे ते एकांत माने पण एकबीजाने सापेक्षपणे न माने एटले एक धर्मने माने अने बीजा धर्मने न माने ते नैगमाभास कहियें। ए दर्नय जाणवो। केमके अन्य नयने गवेषे नही माटे। जेम आत्माने विषे सत्त्व तथा चैतन्य ए धर्म भिन्नभिन्न छ तेमां चैतन्यपणो न माने ते नैगमाभास कहिये। एटले नैगमनय कह्यो। [६१] सामान्यमात्रग्राही सत्तापरामर्शरूपः सङ्ग्रहः। (प्र.न.त.७.१३) स परापरभेदाद् द्विविधः। (प्र.न.त.७.१४) तत्र शुद्धद्रव्य सन्मात्रग्राहकः परसङ्ग्रहः, चेतनालक्षणो जीव इत्यपरसङ्ग्रहः। सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान् निराचक्षाणः सङ्ग्रहाभासः (प्र.न.त.७.१७) सङ्ग्रहस्यैकत्वेन 'एगे आया' इत्यभिज्ञानात् सत्ताद्वैत एव आत्मा ततः सर्वविशेषाणां तदितराणां जीवाजीवादिद्रव्याणामदर्शनाद् द्रव्यत्वादिन्यवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तदभेदेषु गजनिमिलिकाम् अवलम्बमानः परः(पुनः) अपरसङ्ग्रहः। (प्र. न. त.७.१९) धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वादिभेदादित्यादि। (प्र.न.त.७.२०) द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान् निह्नवानस्तदाभासो यथा द्रव्यमेव तत्त्वं तत्त्वपर्यायाणामग्रहणाद्विपर्यास इति सङ्ग्रहः। (प्र.न.त.७.२१) ६१] अर्थ- हवे संग्रहनय कहे छ। सामान्य मात्र समस्तविशेष रहित सत्यद्रव्यादिकने ग्रहवानो छे स्वभाव जेनो ते सत्ता. कहेता पिंडपणे विशेषराशीने ग्रहे पण व्यक्तपणे न ग्रहे स्वजातिना दीठा जे इष्ट अर्थ तेने अविरोधे करीने विशेष धर्मोने एकरूपपणे जे ग्रहण करवो ते संग्रहनय कहियें ए भावना छ। तेना बे भेद छे परसंग्रह, अपरसंग्रह तेमां अशेषविशेषोदासीनं भजमानं शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसङ्ग्रह इति। (प्र.न.त.७.१५) जे समस्त विशेष धर्म स्थापनानी भजना करतो एटले विशेषपणाने अणग्रहतो थको शुद्धद्रव्य सत्तामात्रप्रतें माने जेम द्रव्य, ए परसंग्रह। विश्व एक सत्पणा माटे एम कह्याथी छतापणाना एकपणानुं ज्ञान थाय छे एटले सर्व पदार्थनो एकपणे ग्रहण छे ते परसंग्रह कहिये। तथा जे सत्तानो अद्वैत स्वीकारे अने द्रव्यांतरभेद न माने समस्त विशेषपणाने ना कहेता थको जे ग्रहण करे ते अद्वैतवादी वेदांत तथा सांख्यदर्शन ए परसंग्रहाभास छे, केमके जे भेद धर्म छता देखाय छे तथा द्रव्यांतरपणो तेने न माने माटे परसंग्रहाभास कहिये। अने जैन तो विशेष सहित सामान्यने ग्रहे छे माटे संग्रहनय कहिये। द्रव्यत्वादिनयान्तरसामान्यानि मत्त्वा तद्भेदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानोऽपरसङ्ग्रहः। (प्र.न.त.७.१९) द्रव्य जे जीव अजीवादिक जे अवांतर सामान्यने मानतो अने जीवने विषे प्रति जीवनो विशेष भेद भव्य, अभव्य, सम्यक्त्वी, मिथ्यात्वी, नरनारकादि जे भेद तेने गजनिमीलिका कहेता मस्ताइयें(?) न गवेषवो ते अपरसंग्रह कहिये। अने द्रव्यने सामान्यपणे माने पण स्वद्रव्यनी परिणामिकतादिक धर्मने न माने ते अपरसंग्रहाभास कहियें ए संग्रहनयनुं स्वरूप का। [६२] सङ्ग्रहेण च गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः। (प्र.न.त.७.२३) यथा यत् सत्तद्रव्यं पर्यायश्चेत्यादि। (प्र.न.त.७.२४) यः पुनरपरमार्थिकं द्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः। (प्र.न.त.७.२५) चार्वाकदर्शनमिति व्यवहारदर्नयः। (प्र.न.त.७.२६) [६२] अर्थ- हवे व्यवहारनय कहे छ। संग्रहनय ग्रह्या जे वस्तुना सत्त्वादिक धर्म तेनेज गुणभेदें वेहेंचे, भिन्नभिन्न गवेषे, तथा पदार्थनी गुणप्रवृत्ति तेनेज मुख्यपणे गवेषे ते व्यवहारनय कहिये। जेम द्रव्य छे तेना जीव पुद्गलादिक पर्यायना क्रमभावी तथा सहभावी ए रीतें बे भेद छे, तेमां वलीं जीव बे प्रकारें सिद्धना, संसारी। तेमज पुद्गलना बे भेद परमाणु तथा खंध इत्यादिक कार्यभेदें भिन्न माने तथा क्रमभावी पर्यायना बे भेद एक क्रियारूप बीजो अक्रियारूप। इम वेहेंचण जे सामर्थ्यादिक गुणभेदें भेद पडे ते सर्व व्यवहारनय जाणवो।
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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