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________________ १६२ स्याद्वादपुष्पकलिका [४११ अर्थ- एमज सर्व द्रव्यमां नित्यता तथा अनित्यता छ। ए नित्यअनित्यपणा विना द्रव्य कोइ नथी। जो द्रव्यमां नित्यता न होय तो कार्यनो अन्वय कोने होय? एटले अमुक कार्य ते अमुक द्रव्ये कर्यो एम कह्यो जाय नही, माटे द्रव्यमां नित्यता मानवाथीज अमुक द्रव्ये अमुक कार्य को एम कहेवाय छ। माटे जो द्रव्यने नित्यपणेज मानियें तो गुण- कार्य ते द्रव्यनो कहेवाय, अने गुण ते द्रव्य न कहेवाय। अने जो द्रव्य नित्य न होय तो कारणपणानो अभाव थाय माटे द्रव्यमां नित्यता मानवी। अने जो द्रव्यमां अनित्यपणो न मानियें तो जाणंग आदे देइनें सर्व द्रव्यना गुणरूप कार्यनो अभाव थइ जाय, अर्थक्रिया संभवे नही, एटले कोइ अनित्यपणो होय तो अर्थ क्रियाने करे केमके करवापणो कोइक बीजापणो एटले नवापणो निपजाववो ते पूर्व पर्यायनो ध्वंस थयेथी थाय अने ते एकनो ध्वंस अने कोइक बीजा नवानो नीपजवो ते द्रव्यमां अनित्यपणो छ। एटले नित्य स्वभाव तथा अनित्य स्वभाव ओलखाव्या। हवे एक स्वभाव तथा अनेक स्वभाव ओलखावे छे। [४२] तथा समस्तस्वभावपर्यायाधारभूतभव्यदेशानां स्वस्वक्षेत्रभेदरूपाणामेकत्वपिण्डीरूपापरत्याग एकस्वभावः। क्षेत्रकालभावानां भिन्नकार्यपरिणामानां भिन्नप्रभावरूपोऽनेकस्वभावः, एकत्वाभावे सामान्याभावः। अनेकत्वाभावे विशेषधर्माभावः स्वस्वामित्वव्याप्यव्यापकता|या प्यभावः [४] तथा कहेता तेमज समस्त कहेता सर्व जे स्वभाव अस्तित्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघु आदिक समस्त पर्याय गुणाविभागादिक ते सर्वनुं आधारभूत क्षेत्र ते प्रदेश छे ते स्व कहेता पोताना जे क्षेत्र ते सर्व भेदरूप जुदा जुदा छे, एटले संख्याता प्रदेश भिन्न छे पण ते एकपिंडपणो किंवारें तजता नथी। सर्व प्रदेशमां अंतराल क्षेत्रपणो कोइवारें पामतो नथी, जे अनंता स्वभाव, अनंत पर्याय, ते असंख्यात प्रदेशरूप तेनुं प्रमाण फिरतुं नथी एवो जे द्रव्यने विषे समुदायपिंडपणो रहे छे ते एक स्वभाव कहियें। ते पंचास्तिकायमध्ये धर्म, अधर्म, आकाश, ए त्रण द्रव्य एकेक छ। अने जीव द्रव्य अनंता छे तेथी पुद्गल परमाणुओ अनंत गुणा छ। ते एक जीव अनेक रूप नवा नवा करे पण अन्तर पडे नही ते माटे द्रव्यमध्ये एक स्वभाव छ। क्षेत्र असंख्यात प्रदेश, काल उत्पादव्ययरूप, भाव पर्याय गुणना अविभाग ते पोताना भिन्नकार्य परिणामी छे, ते सर्वनो भिन्न प्रवाह छ। एटले सर्वना कार्यपणो भिन्न छे ते माटे द्रव्यने सर्व स्वभाव पर्याय भेदें विचारतां द्रव्यमां अनेक स्वभाव पण छ। जो वस्तुमा एकपणाना अभाव मानियें तो सामान्यपणो रहे नही अने गुणनो पर्यायनो स्वामी आधार ते कोण थाय? अने आधार विना गुणादि आधेय ते क्यां रहे? ते माटे द्रव्यनो एकपणो छ। जो वस्तुमा अनेकपणो न मानियें तो द्रव्य ते विशेष रहित थई जाय, तेथी गुणनो अनेकपणो शी रीते द्रव्यने विषे पामियें? माटे द्रव्यमां गुणकार्यनो अनेकपणो पण छे तथा स्वस्वामित्व व्यापकव्यापकभाव केम ठरे? जे गुणपर्याय ते स्व कहेता घन अने द्रव्य ते तेनो स्वामी छे अथवा द्रव्य ते व्याप्य अने गुणपर्याय ते व्यापक छे ए रीते द्रव्यमां एक स्वभाव तथा अनेक स्वभाव जाणवा। [४३] स्वस्वकार्यभेदेन स्वभावभेदेन अगुरुलघुपर्यायभेदेन भेदस्वभावः, अवस्थानाधारताद्यभेदेन अभेदस्वभावः। भेदाभावे सर्वगणपर्यायाणां सङ्करदोषो गणगणीलक्षलक्षण: कार्यकारणतानाशः, भेदाभावे स्थानध्वंस: कस्यैते गणाः को वा गुणी? इत्याद्यभावः। [४३] अर्थ- स्वस्व कहेता पोतपोताना कार्यने भेदें करी एटले जीवद्रव्यमां ज्ञानगुण ते जाणवानुं कार्य करे, अने दर्शनगुण देखवान कार्य करे तथा चारित्रगुण थिरतारमणतारूप कार्य करे, तथा पुद्गलद्रव्य ते रूपपणो भिन्न कार्य करे, तथा वर्णपणो, गंधपणो, रसपणो अने स्पर्शपणो, सर्व कार्य भिन्न छ। तथा स्वभावभेद ते अस्तिस्वभाव छति रूप छे, नित्यस्वभाव अविनाशीपणो छ, अनित्यपणो ते पलटण रूप छे, एकपणो ते ते पिंडरूप छे,अनेकपणो ते प्रदेशादिक छ। इत्यादि स्वभावभेद तथा अगुरुलघुपर्याय प्रदेशे गुणाविभागें जूदो जूदो छ। कोई कोईनो तुल्य नथी, हानिवृद्धिरूप परिणमन छे इत्यादि प्रकारे द्रव्यमां भेद स्वभाव छ। तथा सर्व धर्मनो अवस्थान कहेता रहेवो तेने आधारपणो कार्यनी तुलना कहेता सरिखापणो केवारें भिन्न पडतो नथी, ते माटे द्रव्यमां अभेद स्वभाव छ। जो द्रव्य गुणपर्यायमां भेद स्वभाव न होय तो सर्वसंकर-एकपणो थाय तेवारें कार्यनो भेद केम पडे? ते माटे सर्व द्रव्यगुणपर्यायमां भेद स्वभाव छ। जीव ते चेतना लक्षणवंत अजीव ते चेतना रहित ए भेद छ। अजीवमध्ये जे अधर्मास्तिकाय द्रव्य ते चलनसहकारनें करे छे, पण बीजा अजीवद्रव्य ते ए कार्य करता नथी। एम धर्मास्तिकाय थिरसहायगुणन करे छे। आकाश अवगाहदानने करे छ। पुद्गलरूपी आवरण स्कंधादिपरिणमन करे छ। एम सर्व द्रव्यनें भेद छे तोज भिन्न भिन्न द्रव्य कहेवाय छ।
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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