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________________ अष्टमं परिशिष्टम् १५९ [३३] अर्थ:- एक अप्रच्युतिनित्यता, बीजी पारंपर्यनित्यता। तिहां अप्रच्युतिनित्यता तेने कहिये जे द्रव्य ते ऊर्ध्वप्रचय तिर्यक्प्रचयने परिणमवे ए द्रव्य तेहिज ए ध्रुवतारूप ज्ञान थाय छे एटले सदा सर्वदा त्रणे काले तेहिज, एवं जे ज्ञान थाय छे जे मूल स्वभ पलटे नही ते अप्रच्युति नित्यता कहिये। अने ए नित्यतामां जे ऊर्ध्वप्रथय कह्यो ते ओलखावे छे। जे पहेले समये द्रव्यनी परिणति हति ते बीजे समयें नवपर्यायने उपजवे अने पूर्वपर्यायने व्यय सर्व पर्यायनी परावृत्ति थइ, तो पण ए द्रव्य तेनुं तेज, एवं जे ज्ञान थाय ते द्रव्यमां उर्ध्वप्रचय कहियें। उपरले समये ते माटे उर्ध्व प्रचय कहियें। तथा अनंताजीव सरिखा छे पण सर्वजीव जाणतां एपण जीव एवो जीवत्वसत्तायें तुल्य भिन्न जीव सत्तारूप ज्ञान थाय ते तिर्यक्प्रचय कहियें। ऊर्ध्वप्रचय ते समयांतरे अनेक उत्पादव्ययने पलटवे पण ए जीव ते तेज छे एवं ज्ञान थाय ए नित्यस्वभावनो धर्म जाणवो। ए कारणथी कार्य उपनो तेनुं ज्ञान थाय ते नित्यस्वभावनो धर्म जाणवो तथा ए कारणथी जे कार्य उपनो वली ज्ञान थयुं ते कारणथी बीजे कारणे बीजुं कार्य थाय एम नवे नवे कार्य उपने पण जीव तेज छे एवं जे ज्ञान थाय, परंपरारूप संतति चाली जाय ते पारंपर्य नित्यता कहियें। जेम प्रथम शरीरने कारणे राग हतो तेहिज वस्त्र धनने कारण प्रते राग थयो ते कारण नवा रागनो नवापणो पण राग रहित आत्मा केवारे नही, ए पारंपर्य एटले परंपरा नित्यता कहियें। बीजुं नाम संततिनित्यता जाणवी, ते कारण योगे निमित्तें नीपजे, नवा नवा पर्यायने परिणमवे एटले पूर्व पर्यायाने व्ययथवे तथा अभिनव पर्यायने उपजवे अनित्य स्वभाव जाणवो। एटले उत्पत्ति कहेता उपजवो व्यय कहेता विसवो वो जे स्वभाव ते अनित्य स्वभाव जाणवो। [३४] तत्र नित्यत्वं द्विविधम्-कूटस्थं प्रदेशादिनां परिणामित्वं ज्ञानादिगुणानाम् । तत्रोत्पादव्यचावनेकप्रकारौ तथापि किञ्चिल्लिख्यते विस्रसाप्रयोगजभेदाद् द्विभेदो सर्वद्रव्याणां चलनसहकारादिपदार्थक्रियाकारणं भवत्येव । [३४] अर्थः- तिहां वली ग्रंथांतरे नित्यपणो बे प्रकारे कह्यो छे, एक कूटस्थनित्यता, बीजी परिणामिनित्यता छे । जीवना असंख्यात प्रदेश ते संख्यायें तथा क्षेत्रावगाह पलटतो नथी ते तथा गुणनो अविभाग ते सर्व कूटस्थनित्यता छे। ज्ञानादिक गुण ए सर्व परिणामिक नित्यतायें छे, केमके गुणनो धर्मज ए छे। जे समय समतें स्वभाव कार्यपणे परिणमे अने जे कार्य होय ते परिणामिकपणेज होय ए नीतिज छे, अने जो ज्ञानगुणने कूटस्थनित्यतापणे मानियें तो पहेले समतें जे ज्ञाने करी जाण्यो तेहिज जाणपणो सदासर्वदा रहे, पण तेम तो नथी । ज्ञेय तो नवनवी रीतें परिणमता देखाय छे तो ते ज्ञेयनी नवनवी अवस्था ज्ञान जाणे नही, एटले पहेले समय जे रीते ज्ञान परिणमे छे ते रीतें परिणमन जो जोईये अने ए रीते ज्ञान यथार्थ धयुं एम घंटे नहीं ते माटे ज्ञेय जे घटपटादिक ते जेम पलटे छे तेम ज्ञान पण जाणे तेहिज ज्ञान यथार्थ धाय ते माटे ज्ञानगुण ते नवा नवा ज्ञेय जाणवा माटे परिणामी जाणवो। अनित्य ज्ञायकता शक्ति माटे नित्य। ए रीतें नित्यानित्य स्वभावी सर्व गुण छे । सर्व द्रव्यने विषे पोतानी क्रियानुं कारण थायज छे। [३५] तत्र चलनसहकारित्वं कार्य धर्मास्तिकार्य द्रव्यस्य प्रतिप्रदेशस्थचलनसहकारिगुणा विभागा उपादानकारणं कारणस्यैव कार्यपरिणमनात् तेन कारणत्वपर्यायव्ययः कार्यत्वपरिणामस्योत्पादो गुणत्वेन ध्रुवत्वं प्रतिसमयं कारण उत्पादव्ययौ कार्यस्याप्युत्पादव्ययावित्यनेकान्तजयपताकाग्रन्थे । एवं सर्वद्रव्येषु सर्वेषां गुणानां स्वस्वकार्यकारणता ज्ञेया । इति प्रथमव्याख्यानम्। , [३५] अर्थ:-तिहां जेम धर्मास्तिकायद्रव्यनो चलनसहकारीपणो ते मुख्य कार्य छे अने अधर्मास्तिकायद्रव्यनो स्थिरसहायित्व ते मुख्य कार्य छे, वली आकाशद्रव्यनुं अवगाहनादान ते मुख्य कार्य छे, जीवनो जाणवा देखावारूप उपयोग ते मुख्य कार्य छे, पुलनो वर्णगंधरसस्पर्शपणो ते मुख्य कार्य छे, इत्यादि स्वकार्यनो थावुं छे ते जिहां थावुं तिहां भवनधर्म थयो । अने जिहां भवनधर्म ते उत्पाद थयो, अने उत्पाद होय ते व्यय सहितज होय ते भवनधर्म तत्त्वार्थ ग्रंथ मध्ये कह्यो छे। हवे ते उत्पादव्यय वे प्रकारना छे। एक प्रयोगथी थाय अने बीजो विस्रसा कहेता सहजे परिणामी धर्मे थाय हवे इहां सहजनो उत्पादव्यय कहे छे। तिहां धर्मास्तिकायादि छ द्रव्यने पोतपोताना चलन सहाकारादि गुणनी प्रवृत्तिरूप अर्थक्रियानो करवो थायज, अने चलनसहकारपणो ते कार्य। धर्मास्तिकायद्रव्यने प्रतिप्रदेशें रह्यो जे चलन सहकारी गुणाविभाग ते उत्पादानकारण छे, हिर्य परिणमे छे। एटले कारणपणानो व्यय अने कार्यपणानो उत्पाद तथा चलन सहकारीपणे ध्रुव छे। एमज अधर्मास्तिकायने विषे थिरसहायगुणनुं प्रवर्तन छे तथा आकाशास्तिकायने विषे पण अवगाहनागुणनुं प्रवर्तन एमज छे। वली पुगलमां पूरणगलनादिक गुणनुं प्रवर्तन छे, तेमज जीवद्रव्यमां ज्ञानादिक गुणनुं प्रवर्तन छे, अथवा वली अनेकांतजयपताका ग्रंथने विषे एम पण कह्युं छे जे प्रतिसम गुणने विषे कारणपणो नवो नवो उपजे छे एटले कारणपणानो पण उत्पाद व्यय छे तेमज प्रतिसमयें कार्यपणो पण नवो नवो उपजे छे, एटले कार्यपणानो पण उत्पाद व्यय छे, एम सर्व द्रव्यने विषे सर्व गुणनो कार्यपणो कारणपणो उपजे विणसे छे, एम उत्पाद व्ययनो एक
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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