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________________ अष्टमं परिशिष्टम् १५३ परिणमे छे एवो जे परिणाम ते सत्पणो कहियें अने ते सत्पणानो भाव ते सत्त्वपणो कहिये। ६) तथा छठ्ठो १ अनंतभाग हानि, २ असंख्यातभाग हानि, ३ संख्यातभाग हानि ४ संख्यातगुण हानि, ५ असंख्यातगुण हानि, ६ अनंतगुण हानि, ए छ प्रकारनी हानि, तथा १ अनंतभाग वृद्धि, २ असंख्यातभाग वृद्धि, ३ संख्यातभाग वृद्धि, ४ संख्यातगुण वृद्धि, ५ असंख्यातगुण वृद्धि, ६ अनंतगुण वृद्धि ए छ वृद्धि। एम छ प्रकारनी हानि तथा छ प्रकारनी वृद्धि ते अगुरुलघु पर्यायनी सर्व द्रव्यने सर्व प्रदेशे परिणमे छे ते कोइक प्रदेशे कोइ समये अनंतभाग हानिपणे परिणमे छे अने कोइक समये कोइक प्रदेशें अनंतभाग वृद्धिपणे परिणमे छ। एवं बार प्रकारे परिणमे छे ते अगुरुलघु पर्यायनी परिणमन शक्ति ते अगुरुलघुत्व-अगुरुलघुनो भाव जाणवो। तत्त्वार्थ टीकाने विषे पांचमा अध्यायें अलोकाकाशने अधिकारें कह्यो छ। एम छ स्वभाव सर्व द्रव्यने विषे परिणमे छ। ए छए द्रव्यना मूल स्वभाव छ। द्रव्यनो भिन्नपणो प्रदेशनो भिन्नपणो ते अगुरुलघुने भेदपणे थाय छे ते माटे ए छ मूल सामान्य स्वभाव छ। ए द्रव्यास्तिक धर्म छे अने एर्नु परिणमन ते पर्यायास्तिक धर्म छ। ___ केटलाक वादी एम कहे छे जे पर्यायनो पिंड ते द्रव्य छे, पण द्रव्यपणो भिन्न नथी। जेम धूरी, पइडा, कागमो, डागली, जूहरी प्रमुख समुदायने गाडो कहिये पण सर्व अवयवथी भिन्न गाडापणो कोइ देखातो नथी; तेमज ज्ञानादिक गुणथी भिन्नपणे कोइ आत्मा देखातो नथी। तेने कहिये जे ज्ञानादिक गुणने विषे छति एक पिंड समुदायता सदा अवस्थितपणो अने द्रव्यथी मिली न जाय तथा स्वक्रियावंतपणो इत्यादिक सामान्य धर्म छ। छति अस्तित्व अर्थ क्रियावंत ते द्रव्यपणो एकपिंडपणो ते वस्तुत्व इत्यादिक ते सर्वद्रव्यपणो छ। एटले द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक ए बेहु मलीने द्रव्यपणो छ। उक्तं च सम्मतौ दव्वा पज्जवरहिआ न पज्जवा दव्वओ वि उप्पत्ति।(दव्वं पज्जवरविउयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि)(१-१२) ए मूल सामान्य स्वभावना छ भेद कह्या। [१५] तत्र अस्तित्वमुत्तरसामान्यस्वभावगम्यं ते चोत्तरसामान्यस्वभावा अनन्ता अपि वक्तव्येन त्रयोदश। (१) अस्तिस्वभावः (२) नास्तिस्वभावः (३) नित्यस्वभावः (४) अनित्यस्वभावः (५) एकस्वभावः (६) अनेकस्वभावः (७) भेदस्वभावः (८) अभेदस्वभावः (९) भव्यस्वभावः (१०) अभव्यस्वभावः (११) वक्तव्यस्वभावः (१२) अवक्तव्यस्वभावः (१३) परमस्वभावः इत्येवरूपं वस्तुसामान्यान्तमयम्। [१५] अर्थः- तथा वली अस्तित्व उत्तर सामान्यस्वभाव कहे छे ते उत्तर सामान्यस्वभाव वस्तु मध्ये अनंता छ। पण तेर सामान्य स्वभाव अनेकांतजयपताकादि ग्रंथे वखाण्या छे, तेमांथी लेशमात्र लखिए छैयें। तेनां नाम उपरना मूल पाठमां सुलभ छे माटे लिख्यां नथी। तथा एना व्याख्यानथी पण जणाशे। ए तेर सामान्य स्वभावें परिणमती वस्तु होय। [१६] (१) स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन व्याप्यव्यापकादिसम्बन्धिस्थितानां स्वपरिणामात् परिणामान्तरगमनहेतुः वस्तुनः सद्रपतापरिणतिः अस्तिस्वभावः।। [१७] अर्थ- तेमां १) प्रथम अस्तिस्वभाव- लक्षण कहे छ। स्व कहेता पोताना द्रव्यादिक चार धर्म तेनो जेमां व्यापकपणो छ। द्रव्य ते गुणपर्यायना समुदायनो आधारपणो, क्षेत्र ते प्रदेशरूप सर्व गुणपर्यायनो अवस्थाने राखवापणो, जे जेने राखे ते तेनुं क्षेत्र जाणवू, काल ते उत्पादव्ययध्रुवपणे वर्तना, भाव ते सर्व गुणपर्यायनो कार्यधर्म। तिहां जीव द्रव्य- १ स्वद्रव्यप्रदेश गुणनो समुदाय द्रव्य छे, ते गुणपर्यायनो जनकपणो ते स्वद्रव्य, २ जीवना असंख्याता प्रदेश ते स्वपर्यायनो स्वक्षेत्रपर्याय ते जाणवा एटले देखवादिक जे गुणनो पर्याय तेनुं जे क्षेत्र ते स्वक्षेत्र, ३ पर्यायमध्ये कारण कार्यादिकनो जे उत्पादव्यय ते स्वकाल तथा, ४ अतीतअनागत वर्तमाननु परिणमन ते स्वभाव ते कार्यादिक धर्म जेम ज्ञानगुणनो पर्याय जाणंगपणो, वेत्तापणो, परिच्छेदकपणो, विवेचनपणो, इत्यादिक स्वभाव। एम स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव, जे परिणामिकपणे परिणमता तेनी अस्तिता कहेवी। ए सर्वनी छति छे ते अस्तिस्वभाव छ। ए अस्तिस्वभावें द्रव्य छे, ते पोतानो मूल धर्म मूकी अन्य धर्मपणे परिणमतो नथी, परिणामांतरे अगमन छ। ए अस्ति स्वभाव ते सर्व द्रव्यमां पोताना गुणपर्यायनो जाणवो। जे अस्ति ते सद्रूपता छतांरूपपणानी परिणति लेवी। सर्व द्रव्यमां पोताने धर्मेज परिणमे पण जे जीव द्रव्य ते अजीव द्रव्यपणे न परिणमे तथा एक जीव ते अन्य जीवपणे न परिणमे, वली एक गुण ते अन्य गुणपणे न परिणमे, ज्ञानगुणने विषे दर्शनादिक गुणनी नास्तिता छे अने ज्ञानना धर्मनी अस्तिता छ। तथा एकगणना पर्याय अनंता छे ते सर्व पर्याय धर्मे सरिखा छे पण एक पर्यायना धर्म बीजा पर्यायमां नहि अने बीजा पर्यायना धर्म पहेला पर्यायमां नहि। माटे सर्व पोताने धर्मेज अस्ति छ। ए रीते अस्ति नास्तिनुं ज्ञान सर्वत्र करव। ए द्रव्यने विषे प्रथम अस्तिस्वभाव कह्यो। १. द्रष्टव्य-स्याद्वादपुष्पकलिका परिच्छेद-१० (गाथा ५-६)
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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