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(४०) बारहवा अंग पूर्व है, जिसका अपर नाम दृष्टिवाद है । दृष्टि का अर्थ है - दर्शन और वाद का अर्थ है - वदन । दृष्टिवाद सभी दर्शनों का मुख है। दृष्टिवाद की रचना ग्यारह अंग से पहले हुई है इसलिये इसे पूर्व कहते है । यह अर्थ से तीर्थंकर और सूत्र से गणधर द्वारा रचित है। पूर्व पाँच प्रकारका है । १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वानुयोग, ४. पूर्वगत, ५. चूलिका । परिकर्म में अनेक प्रकार और उपप्रकार है। सूत्र बाईस प्रकार का है । पूर्वानुयोग के मुख्य दो भेद है - प्रथमानुयोग और कालानुयोग । प्रथमानुयोग में चौबीस तीर्थंकर बारह चक्रवर्ति, आदि के चरित्र है । कालानुयोग में अष्टांग निमित्त है। चौदह पूर्व का समावेश पूर्वानुयोग में होता है। कहने में बाकी रहे विषय का कथन चूलिका में होता है । मैं दृष्टिवाद का ध्यान करता हूँ।
श्रुत के अनेक प्रकार है । आगाढ योग (क्रिया विशेष) से साध्य आगम, कालिक श्रुत कहलाता है। अनागाढ योग से साध्य आगम उत्कालिक श्रुत कहलाता है। अन्य रीत्या श्रुत के दो प्रकार है । अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य (अनंगप्रविष्ट) । आगमो में श्रुतपुरुष की मनोरम कल्पना की गई है । जिस तरह पुरुष के शरीर में बारह अंग होते है, जैसे कि-दो पैर, दो ऊरु (ऊरु बाहरी जांघ) दो जंघा (जंघा भीतरी जांघ) दो गात्रार्थ - पेट और कमर, दो हाथ, गला एवं सिर – उसी तरह श्रुतपुरुष के भी बारह अंग है। दायां पैर - आचारांग, बायां पैर-सूत्रकृतांग, दाहिनी जंघा-स्थानांग, बायीं जंघा-समवायांग, दाहिनी जंघा-विवाहप्रज्ञप्ति, बायीं जंघा-ज्ञाताधर्मकथा, पेट-उपासकदशा, कमर-अंतकृद्दशा, दाहिना हाथ - अनुत्तरोपपातिकदशा, बायां हाथ-प्रश्नव्याकरणदशा, गला-विपाकसूत्र, सिर-दृष्टिवाद । श्रुतपुरुष के अंगभूत आगमों को अंगप्रविष्ट कहा जाता है । उससे व्यतिरिक्त आगमों को अंगबाह्य कहा जाता है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का विभागीकरण अन्य
१. इच्चेतस्स सुतपुरिसस्स जं सुत्तं अंगभागठितं तं अंगपविटुं भण्णइ । (नन्दीसूत्र अवचूर्णि ।)