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२७८
प्रशमरतिप्रकरणम्
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टी.अं.
प्र.ह.
पत्राङ्क
पाठान्तर
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स्थलः टी. टी. वि. वि. वि. वि. वि. वि. अव. टी. वि. वि. अव. अव. टी. वि. अव.
२२८ २२८ २२८ २२८ २२८ २२८ २२८ २२८ २२८ २२९ २२९ २२९ २२९ २३० २३१ २३१ २३१
१९८-B १९८-B १८-B १८-B १८-B १८-B १८-B १८-B ९-B १९९-B १८-B १८-B ९-B ७३-B (दे) २००-A १८-B ९-B
पत्राङ्क ७३-A (जै) ७३-A (जै) ४६-A (दे) ४६-A (दे) ४६-A (दे) ४६-A (दे) ४६-A (दे) ४६-A (दे) ७४-B (दे) ५१-A ४६-B (दे) ४६-B (दे) ७३-B (दे) ९-B ५१-B ४७-A (दे) ७४-B (दे)
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२३२ २३२ २३३ २३३ २३३ २३४ २३४ २३४
टी. टी. वि. वि. अव. टी. टी. टी.
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२००-B २००-B १८-A १८-A ९-B ५२-A २०२-A २०२-A
क्षीणकषायस्य कथं वा य इत्यधिकम् तत् इत्यधिकम् आचाम्लवर्जिता(ता )हारः (पारणे) इत्यधिकम् इदं इति नास्ति चतुष्टय इति लोभकषायः अनेकेना किंभूतैः तेषां इत्यधिकम् नयैः-नैगमादिभिः इत्यधिकम् न इति नास्ति नास्ति सद्दर्शन चारित्रं दर्शनज्ञानलाभे । चारित्रलाभे दशविधक्षमादिके नास्ति उत्कृष्टरूपा मोक्षं जघन्याद्याराधनानाम् इत्यधिकम् समानाधिकरणेन पानादि समाध्यु पत्रमिदं प्रान्ते त्रुटितमिति पाठो नावलक्ष्यतेऽत्रत्यः । साधू....कुर्वति (ह.) साधूनाराधयन्नमेव कुर्वन्निति । साधूनाराधयति प्रयत्नमेव कुर्वन्निति भ्रष्टोऽत्रत्यः पाठः नवा शृणोतीति माहंतारं वा इति भिनत्ति सुखकाक्षिण मूलोत्तरलक्षणे मानुषे देवेषु मानुषेषु च नास्ति (हे. प्रतौ पत्रस्यान्त भागः त्रुटितः द्वितीयपङ्क्तिवतिः .....र्ग शब्देनोपकल्पितः पाठोऽयम् ।) स्वर्गो मोक्षश्च परोक्षं तत्र च यत्सुखं व्ययं प्रापितम्-बाधितम्
५१-B ५१-B ४७-A (दे) ४७-A (दे) ७४-B (दे) २०१-B ५२-A ५२-A
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७४-A (जै)
२३५ २३५ २३५ २३५ २३६ २३६ २३६ २३६ २३६ २३७
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२०२-B २०२-B २०२-B २०२-B २०२-B २०२-B २०३-A २०३-A १९-A २०३-A
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५२-A ५२-A ५२-A ५२-A ५२-A ५२-A ५२-A ५२-B ४७-B (दे) ५२-B
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१०-A
७४-B (दे)