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उप्पन्ने ई वा निगमे ई वा धुवे ई वा।
उत्पन्न होने वाले, नष्ट होने वाले और ध्रुव रहने वाले को सत् कहते हैं। इसीलिए सत् की न तो आदि है और न अन्त है। उसका न तो कभी नाश होता है और न कभी नया उत्पन्न होता है। वह सदैव तीनों कालों में विद्यमान रहता है। यही तत्त्व है।
तत्त्वों की संरचना
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ तत्त्व हैं। नौ तत्त्वों में सब से पहला तत्त्व जीव है । उसके २५ स्थान है । वे ये हैं- (१) जीवस्थानक (२) गुणस्थानक (३) योग (४) उपयोग (५) तनु (६) लेश्या (७) दृष्टि (८) पर्याप्ति (९) प्राणः (१०) आयुष्क (११) आगति (१२) गति (१३) कुलकोडि (१४) योनिलक्ष (१५) वेद (१६) कार्यस्थिति (१७) संहनन (१८) संस्थान (१९) अवगाहना (२०) मूलप्रकृतिबन्ध (२१) उत्तरप्रकृतिबन्ध (२२) समुद्धात (२३) कर्मबन्ध मूलहेतु (२४) उत्तरहेतु (२५) कषाय। इन जीवतत्त्व के २५ स्थानों का ध्यान करना चाहिए। स्थान
प्रकार नाम १ जीवस्थानक
१४ जीव और उसके भेद गुणस्थानक
मिथ्यात्व गुणस्थानादि ३ योग
१५ मन, वचन, काया आदि ४ उपयोग
साकार, अनाकार उपयोगादि शरीर
औदारिकादि ६ लेश्या
कृष्ण, नीलादि
सम्यग, मिथ्या, मिश्रादि ८ पर्याप्ति
आहार, शरीरादि प्राण
१० श्रोत्रादि १० आयु
३ जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टादि ११ आगति
देव, नारक, मनुष्यादि १२ गति
५ देव, नारकादि १३ कुल कोडि १४ योनि
८४ लक्ष १५ वेद
स्त्री, पुरुष, नपुंसक १६ कायस्थिति
जघन्य, उत्कृष्टादि १७ संहनन
वज्रऋषभनाराचादि
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दृष्टि
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१ आवश्यकनियुक्तिमलयगिरिटीका