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कल्पनियुक्ति में प्रधानतः द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की स्थापना का विवरण है। गाथा १ से २३ तक (५२ से ७५) काल-स्थापना का वर्णन है। गाथा २४ से २८ (द.नि. ७५ से ७८) तक क्षेत्र-स्थापना का वर्णन है । गाथा २८ से ३५ (द.नि. ७९ से ८६) तक द्रव्यस्थापना का वर्णन है। ३६ से ६१ (द.नि. ८७ से ११२) तक भाव-स्थापना का वर्णन है । गाथा ६२ से ६७ (द.नि. ११३ से ११८) तक वर्षाकाल सम्बन्धी विशेष बातों का निर्देश है।
___काल-स्थापना के सम्बन्ध में वर्षाकाल में प्रवेश एवं शरद ऋतु में निर्गम की विधि बतायी है । वर्षाकाल में चातुर्मास स्थापना की विधि जानने से पहले ऋतुबद्ध काल की विहार मर्यादा को जानना आवश्यक है । ऋतुबद्ध काल में जिनकल्पी प्रतिमा प्रतिपन्न एक जगह पर एक दिन रहते हैं (कारण होने पर एक माह तक रहते हैं) । यथालन्द पाँच दिन एक जगह पर रहते हैं (कारण होने पर एक माह तक रहते हैं) । परिहारविशुद्धि कल्प स्थित एक जगह पर एक माह तक रहते हैं । स्थविर श्रमण निःकारण एक जगह पर एक माह तक रहते हैं। साधारणतः स्थविरकल्पी के लिये ऋतबद्ध काल में मासकल्प की मर्यादा है। आठ मास में आठ मासकल्प होते हैं । कभी-कभी रोग-दुर्भिक्ष-कर्दम-पुररोध-संघकार्य आदि कारणवश कम-ज्यादा भी हो सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा आषाढी पूर्णिमा तिथि से मगसिर वद दसमी तक चातुर्मास का अवस्थान होता है । इस प्रकार आठ मास विहार करके वर्षाकाल में चातुर्मास स्थापना का लिये योग्य क्षेत्र ढूँढना पड़ता है।
तेरह गुण वाला क्षेत्र चातुर्मास स्थापना के लिये योग्य है । १. जहाँ कीचड़ न हो । २. जहाँ चींटी-मकोड़े जैसे प्राणजीव न हो । ३. जहाँ स्थंडिल भूमि उपलब्ध हो । ४. जहाँ वसति शुद्ध हो । ५. जहाँ दुग्ध आदि गोरस प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो । ६. जहाँ परिवार बड़े हों । ७-८. जहाँ वैद्य और औषध सुलभ हों । ९. जहाँ गृहस्थ के घर धनधान्य से भरपूर हों। १०. जहाँ राजा भद्रक हों । ११. जहाँ पाखण्डिओं से श्रमणों की अवहेलना न होती हों । १२. जहाँ निर्दोष भिक्षा उपलब्ध हों । १३. जहाँ स्वाध्याय में व्याघात न हों ।
आषाढी पूर्णिमा तिथि से भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक श्रमणों का अवस्थान नियत नहीं होता है, इसलिये गृहस्थ को ज्ञात नहीं होता कि श्रमणों की स्थिरता है कि नहीं । अतः वह अनभिगृहीत चातुर्मास स्थापना कहलाती है । भाद्रपद शुक्ल पंचमी के बाद कार्तिकी पूर्णिमा तक स्थिरता पक्की हो जाने से गृहस्थ को ज्ञात होता है, अतः वह अभिगृहीत चातुर्मास स्थापना कहलाती है । अनभिगृहीत चातुर्मास स्थापना साधु को ज्ञात होती है, गृहस्थ को नहीं ।२ इसप्रकार चातुर्मास स्थापना जघन्य से सत्तर दिन प्रमाण होती है । मध्यम मान से अस्सी, पचाशी, नब्बे, पीच्यानबे, सौ, एकसौ पाँच, एकसौ दस दिन प्रमाण होती है । उत्कृष्ट मान से एकसौ वीस और कारणवश एकसौ तीस(मगसिर वद दसमी तक) दिन प्रमाण होती
१. सन्दर्भ-६ से १३ । २. सन्दर्भ-५ ।