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बोहण पडिमा उदयण पभावउप्पाय देवदत्ताते । मरणुयवाए तायस, यणं तह भीसणा समणा ॥९४॥ गंधार गिरी देवय, पडिमा गुलिया गिलाण पडियरेण । पज्जोयहरण पुक्खर रण गहणा मेऽज्ज ओसवा ॥ ९५ ॥ दासो दासीवतितो छत्तट्ठिय जो घरे य वत्थव्वो । आणं कोवेमाणो हंतव्वो बंधियव्वो य ॥ ९६ ॥ - द०नि० "
कल्पनिर्युक्तिः
कथा-सारांश
जम्बूद्वीप में चम्पानगरी निवासी स्वर्णकार कुमारनन्दी अत्यन्त स्त्री-लोलुप था । रूपवती कन्या दिखाई पड़ने पर धन देकर उससे विवाह कर लेता था । इस तरह उसने पाँच सौ स्त्रियों से विवाह किया था । मनुष्यभोग भोगते हुए वह जीवन यापन कर रहा था। इधर पञ्चशैल नाम के द्वीप पर विद्युन्माली नामक यक्ष रहता था । हासा और प्रभासा (प्रहासा) उसकी दो प्रमुख पत्नियाँ थीं। भोग की कामना से वे विचरण कर रही थीं तब तक कुमारनन्दी दिखाई पड़ा । कुमारनन्दी को अपना अप्रतिम रूप दिखाकर वे छिप गई । मुग्ध कुमारनन्दी द्वारा याचना करने पर वे प्रकट होकर बोली, “पञ्चशैल द्वीप आओ" और वे अदृश्य हो गई ।
नाना प्रकार से प्रलाप करते हुए वह राजा के पास गया। राजा - उद्घोषक से उसने घोषणा करवायी कि, उसे (अनङ्गसेन को) पञ्चशैल द्वीप ले जाने वाले को वह करोड़ मुद्रा देगा । एक वृद्ध नाविक तैयार हो गया । अनङ्गसेन उसके साथ नाव पर सवार होकर प्रस्थान किया । दूर जाने पर नाविक ने पूछा, “क्या जल के ऊपर कुछ दिखाई दे रहा है ?" उसने कहा, "नहीं ।" थोड़ा और आगे जाने पर मनुष्य के सिर के प्रमाण का बहुत काला वन दिखाई पड़ा। नाविक ने बताया कि, “धारा में स्थित यह पञ्चशैलद्वीप पर्वत का वटवृक्ष है । यह नाव जब वटवृक्ष के नीचे पहुँचे तब तुम इसकी साल पकड़कर वृक्ष पर चढ़कर बैठे रहना । सन्ध्यावेला में बहुत से विशाल पक्षी पञ्चशैल द्वीप से आयेंगे । वे रात्रि वटवृक्ष पर बिताकर प्रातः काल द्वीप लौट जायेंगे । उनके पैर पकड़कर तुम वहाँ पहुँच जाओगे ।"
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वृद्ध यह बता ही रहा था कि नौका वटवृक्ष के पास पहुँच गयी, कुमारनन्दी वृक्ष पर चढ़ गया । उपरोक्त रीति से जब वह पञ्चशैल द्वीप पहुँचा, दोनों यक्ष देवियों ने कहा, “इस अपवित्र शरीर से तुम हमारा भोग नहीं कर सकोगे । बालमरण तप कर निदानपूर्वक यहाँ उत्पन्न होकर ही हमारे साथ भोग कर सकोगे।" देवियों ने उसे सुस्वादु पत्र - पुष्प, फल और जल दिया । उसके सो जाने पर उन देवियों ने सोते हुए ही हथेलियों पर रखकर उसे चम्पा नगरी में उसके भवन में रख दिया । निद्रा खुलनेपर आत्मीयजनों को देखकर वह ठगा सा दोनों यक्ष देवियों का नाम
८. द००, पूर्वोक्त, पृ० ४८५ ।