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गोचरी जाय जब वृत्त संख्या करे। लाभ नहीं लाभ मैं तोष रोष ना धरे।। सूरि महाराज को ध्याय शुभ भाव सो। नीर गन्ध अक्षतादि पूजते चाव सो।। ऊँ ह्रीं वृत्तपरिसंख्यान तप धारकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
लेय छह रस विषे एक दो ही भले। नीरसी खाय कभी रसन वश ना चले।
सूरि महाराज को ध्याय शुभ भाव सो। नीर गन्ध अक्षतादि पूजते चाव सो।। ऊँ ह्रीं रस परित्याग तप धारकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
विविक्त आसन धरे गहत नहीं मान को। जीव दुष्ट आयकर खण्ड नहीं ध्यान को।।
सूरि महाराज को ध्याय शुभ भाव सो। नीर गन्ध अक्षतादि पूजते चाव सो।। ऊँ ह्रीं विविक्त शय्यासन तप धारकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
त्याग तन मोह को ध्यान मे लीन हो। आय उपसर्ग तो भव सम कीन हो।। सूरि महाराज को ध्याय शुभ भाव सो। नीर गन्ध अक्षतादि पूजते चाव सो।। ऊँ ह्रीं कायोत्सर्ग तप धारकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।6।
होत गमत इत उते, प्रमाद जीव संघरे। दोष होय गुरु निकट प्रायश्चित्त को धरे।।
सूरि महाराज को ध्याय शुभ भाव सो। नीर गन्ध अक्षतादि पूजते चाव सो।। ऊँ ह्रीं प्राश्यिचत तप धारकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।7।
ज्येष्ठ की विनय कर वृत्त को आदरे। विनय से सकल गुण आप आपो वरे।। सूरि महाराज को ध्याय शुभ भाव सो। नीर गन्ध अक्षतादि पूजते चाव सो।। ऊँ ह्रीं विनय तप धारकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।8।।
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