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अथ प्रत्येक पूजा
दोहा
दुष्ट पीड़ा करे क्षमा भाव उर लाय। पूजो पद आचार्य के मन वच काय लगाय।। ऊँ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1।
कोमलता उर में धरे मार्दव वृष अमलान। शुद्ध द्रव्य से पूजिए सरि पद गुण खान।। ऊँ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
अन्तर बाहर एक हैं माया रंच न पाय। आर्जव गुण को धारते सूरि पूजो आय।। ऊँ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।3।।
सत्य वचन बोले सदा सत्य धर्म कहलाय। आचारज यह धारते अर्चत हम गुण गाय।। ऊँ ह्रीं उत्तम सत्य धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
तन स्वभाव से अशुचि है किस विध होय न शुद्धाज्ञानध्यान तप आचरे करे आत्म प्रति
बुद्ध।। ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
इन्द्रिय पांचों वश करे काय छहों प्रतिपाल। इहविधि दो संयम धरे आचाराज नमिभाल।। ऊँ ह्रीं उत्तम संयम धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
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