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घृत दीप मनोहर ल्याय जगमग होत अहा। हम करें आरती आय नाशे तिमिर महा|| श्री आचारज पद सार मन वच तन ध्यावें। हम उतरे भवदधि पार याते गुणगावें।। ऊँ ह्रीं षट्-त्रिंशद् गुणोपेत श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
बहु द्रव्य सुगन्धित सार ताकि धूप करी । खेवे वैश्वानर डार कर्म विनाश करी ।। श्री आचारज पद सार मन वच तन ध्यावें। हम उतरे भवदधि पार याते गुणगावें।। ऊँ ह्रीं षट्-त्रिंशद् गुणोपेत श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति
स्वाहा।
ले केले उत्तम सार आम्र अनार घने । फल भरुं सरस शुभथाल सुन्दर सहजसने।। श्री आचारज पद सार मन वच तन ध्यावें । हम उतरे भवदधि पार याते गुणगावें।। ॐ ह्रीं षट्-त्रिंशद् गुणोपेत श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो: मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति
स्वाहा।
जल चन्दनादि बहु ल्याय अर्घ चढ़ावत हूँ। गाउं प्रभु गुण हर्षाय भक्ति बढ़ावत हूँ।। श्री आचारज पद सार मन वच तन ध्यावें। हम उतरे भवदधि पार याते गुणगावें।। ॐ ह्रीं षट्-त्रिंशद् गुणोपेत श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अनघ्य पद प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
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