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चन्द्रकान्ति सम छत्र तीन शुभ, रत्न जडित सुखकारी।
रत्नमालिका लटके उसमें तीन जगत दुखहारी।। प्रातिहार्य वसु जिनवर सोहे मन को अति ही मोहे।
पूजों वसु विधि द्रव्य संजोकर अविनासी पद हो है।। ऊँ ह्रीं छत्रत्रय प्रातिहार्य सहित अरहन्त देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।42॥
दोहा
तरु अशोक शुभ पीठ है भामण्डल सुखदाय।
चंबर ढुरे चौसठ विमल पुष्प वृष्टि वर्षाय। दिव्यध्वनि नित खिरत है वजत दुन्दुभि सोय।
तीन छत्र सिर सोहते पूजे मन शुध होय।। ऊँ ह्रीं अष्ट प्रातिहार्य विभूति सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्यं निर्वामीति स्वाहा।
अनन्त चतुष्टय अर्घ (सुन्दरी छन्द) दर्शगुण भी अनन्त लखावही ध्याय जिनवर शिव सुखपावही।
सो यजूं सर्वज्ञ जिनेश को अर्घ दे पद पाऊं मोक्ष को।। ऊँ ह्रीं अनन्त दर्शन सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।43॥
होय ज्ञान अनन्त, सु मानिए, तीन लोक चराचर जानिए।
सो यजूं सर्वज्ञ जिनेश को अर्घ दे पद पाऊं मोक्ष को।। ऊँ ह्रीं अनन्त ज्ञान सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।44॥
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