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________________ एना सम भूमि चमकाय धरत चरण जहं आप सुखाय। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं दर्पण सम भूमि अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।24। सुरभित मन्द पवन हितदाय सब जीवों के मन को भाय। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं सुरभित पवनातिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।25।। सर्वानन्दि होय जिनेन्द्र वन्दे सुरपति आदि खगेन्द्र। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं सर्वानन्द कारक अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।26।। कंटक रहित भूमि शुभजान जहं विराजे हो भगवान। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं कंटक रहितातिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।27॥ नभ में होता जय जय कार सब जीवों को सुखद अपार। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं आकाशे जय जय कार शब्दातिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा॥28॥ गन्धोदक की दृष्टि सुखार करत देव सुख लहत अपार। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ॐ ह्रीं गन्धोदक वृष्ट्यातिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा॥29॥ 956
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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