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बढ़े नहीं नख केश कभी किसी काल में। नाश घातिया कर्म रहे निज चाल में। ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के । मन वच तन से पूजूं सिर नाय के। ऊँ ह्रीं नख केश वृद्धि रहित अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽघ्य निर्वपामीति स्वाहा॥19॥
टमकत नाहीं पलक बन्द नाहीं खुले। नासा दृष्टि लगाय कर्म सब दल मले।। ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के । मन वच तन से पूजूं सिर नाय के॥
ॐ ह्रीं नेत्र भों चपलता रहित अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽघ्य निर्वपामीति स्वाहा॥201
दोहा
ये अतिशय केवल तने हे आगम परमाण। पूजूं अघ्य संजोय के उपजे केवलज्ञान।। ऊँ ह्रीं केवलज्ञान दश अतिशय रहित अरहन्त देवेभ्योपूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा।।
देवकृत 14 अतिशय (चौपाई)
अर्द्ध मागधी भाषा जान, सब जीवों को सुखद वखान।
यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय ||
ॐ ह्रीं अर्धमागधी भाषा अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽघ्य निर्वपामीति स्वाहा॥21॥
सब जीवों मैं मैत्री होय पूजूं प्रभु को अर्घ संजोय।
यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत हैं जिन श्रुत गाय।।
ऊँ ह्रीं सर्व जीव मैत्री भाव अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽघ्य निर्वपामीति स्वाहा॥22॥
षट् ऋतु के फल फूले जोय जहं जिनराज विराजे सोय।
यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय ||
ऊँ ह्रीं षट् ऋतु फल पुष्पातिशयं सहित अरहन्त देवेभ्योऽघ्य निर्वपामीति स्वाहा।। 23।।
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