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श्वेत वर्ण श्रोणित महा तन में प्रभु के जान।
यह अतिशय अनुपम सही पूजू रुचिमनठान।। ऊँ ह्रीं श्वेत वर्ण श्रोणितातिशय सहित अरहन्त देवैभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।8।
मधुर मधुर वाणी कहै जन मोहित जो जाय।
नीरादिक से पूजि हो कर्म रिपु नश जाय। ॐ ह्रीं मधुर वचनाति सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।9।
बल अनन्त प्रभु कहा अन्य पुरुष नहीं होय।
भाव भक्ति उर धार के पूजू अर्घ संजोय।। ऊँ ह्रीं अनन्त बलातिशय सहित अरहन्त देवैभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा॥10॥
अतिशय श्री अरहन्त के जन्म तने दश जान।
पूजू अध्य संजोय के पाऊं पद निर्वाण।। ऊँ ह्रीं दश अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्यो पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा।
केवल ज्ञान के दश अतिशय
(अडिल्ल) जहां जिनेश्वर बैठ समवसृत हाल जी। वहं योजन शत होय नही दुष्काल जी।।
ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के। मन वच तन से पूजू सिर नाय के। ऊँ ह्रीं शत योजन दुर्भिक्ष निवारक अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति
स्वाहा॥11॥
होय गमन आकाश प्रभु का जान जी। देव भक्ति में आय करे गुण गान जी।।
ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के। मन वच तन से पूजू सिर नाय के।। ऊँ ह्रीं आकाश गमनातिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।12।
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