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दश विधि द्रव्य की धूप बनाई, अति सुगन्धित भाई। अष्ट कर्म के नाशन कारण अग्नि मांही जलाई।। श्री अरहन्त सकल परमात्म केवल ज्ञानी राजै। होवे भव भव मांहि सहाई याते भव भय भाजे ॥
ऊँ ह्रीं श्री चत्वारिंशद् गुणोपेत अरहन्त परमेष्ठिभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मोच चोच अति उत्तम श्रीफल दाडिम अमृत लावें। छोड़े श्री जिन राज चरण में मोक्ष महाफल पावें।।
श्री अरहन्त सकल परमात्म केवल ज्ञानी राजै। होवे भव भव मांहि सहाई याते भव भय भाजे।।
ऊँ ह्रीं श्री चत्वारिंशद् गुणोपेत अरहन्त परमेष्ठिभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
तोयं चन्दन अक्षत नीरज व्यंजन दीपक जोवे । धूप महाफल अर्घ चढ़ाऊं अविनाशी पद सोवे।
श्री अरहन्त सकल परमात्म केवल ज्ञानी राजै। होवे भव भव मांहि सहाई याते भव भय भाजे ॥
ऊँ ह्रीं श्री चत्वारिंशद् गुणोपेत अरहन्त परमेष्ठिभ्यो अनध्य पद प्राप्तये अर्घं निर्वपामीति
स्वाहा।
अथ प्रत्येक अर्धं (जन्म के 10 अतिशय )
दोहा
जन्म त जिनराज के अतिशय दश बतलाया।
स्वेद रहित प्रभुजी सदा पूजू अर्घ चढ़ाया।
ऊँ ह्रीं पसेव रहित अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽघ्य निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
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