________________
न्याय कर धर्म जग, माँहि परगट करे, धर्म पर-भावना, भाव जजि अघ हरे।। देख भक्ति तासकी सबै जन धनि कहे, या समाभक्ति जग-माँहि नहिं अनि रहे।
ॐ ह्रीं श्री न्यायतः मार्गप्रभावनाभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति कर धर्म परगट करे सोय जी, मार्ग पर-भावना भक्ति जजि जोय जी। देख समभाव कहें, धन्य है ताहि जी, धर्म यासो नहीं, और जग ठांहि जी। ॐ ह्रीं श्री भक्तितः मार्गप्रभावनाभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भाव समता थकी, धर्म परगट करे, मार्ग पर-भाव जजि सकल अघ को हरे।। ऊँ ह्रीं श्री समताभावतः मार्गप्रभावनाभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
और बह धर्म के अंग हैं सार जी, तिन थकी धर्म पर-गट करे भार जी। काज सो ही कर, धर्ममहिमा लहे, सो जजों धर्म पर-भावना अघ दहे।।
ऊँ ह्रीं श्री मार्गप्रभावनाभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला - दोहा वृष विकास जासों लहे, सो ही करिये काज। ताफल तीर्थंकर बने, लहे निरंजन राज।।
(बेसरी छन्द) वृष प्रभावना जो भवि ठाने, सो जग के सब पातक हाने। धर्म प्रकाशन करो महानो, सो प्रभावना अंग बखानो।। दान देय मन वांछित सोई, कल्पवृक्ष सम पूरे जोई। ताकर धर्मोद्योत करावे, सो प्रभावना अंग कहावे।। संघ चलावे तीरथ ठांही, मनवांछित द्रव खर्च करांही। विनयसहित उत्सव बहु आने, सो प्रभावना अंग बखाने।।
934