SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 915
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रत्येकाध्य मुनियानन्द की चाल अंग एकादशा, पूर्व चौदह सही, इन सबै जान बहु-श्रुत गुणकी मही। जजे इनके तिको, इन पदी पायजी, मैं जजों बहुश्रुत, भक्ति मनलाय जी।। ऊँ ह्रीं एकादशांग चतुर्दशपूर्वगुणधारकायै श्री बहश्रुतिभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जतनतें चालिये, जतन उठ बैठजी, जतनतें काज सब, कहे गुण पैठजी। अंग आचार मधि, जतनतें अघ नहीं, या धरा मुनिबह-श्रुत जजों शुभ मही।। ॐ ह्रीं आचारांगसहितायै श्री बहुश्रुतिभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। विनयविधि और अध्ययन श्रुत को सही, आप मत और मत, भेद ता मधि कही। सूत्रकृतांग अंग के, माँही इमि जानिये, या धरा मुनिबहु-श्रुत थुति आनिये। ऊँ ह्रीं सूत्रकृतांगसहितायै श्री बहुश्रुतिभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। तहां जिय थान इक, आदि उन्नीस जी, षट् अधिक चार शत् कहे जगदीश जी। यह स्थानासु अंग, मांहि सब इमि कही, या धरा मुनिबहु-श्रुत जजों शुभ मही।। ऊँ ह्रीं स्थानांगसहितायै श्री बहुश्रुतिभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। काल द्रव्य क्षेत्र इन, आदि सम गाइये, सकल सम वस्तु जो, जगत में पाइये। सकल समवाय अंग, माँहि या विधि कही, या धरा मुनिबहु-श्रुत जजों शुभ मही।। ऊँ ह्रीं समवयांगसहितायै श्री बहुश्रुतिभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 915
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy