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देखे जो त्रयकाल पदारथ सकल ही, तिनकें छानी नाहिं सकल सुख की मही।
या गुण धारक देव कहे अरिहन्तजी, तिनको भक्ति सुभावन सेवत सन्तजी।। ऊँ ह्रीं श्री अनन्तदर्शनसहितायै अर्हद्भक्तिभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सुख अनन्त के धार जगत गुरु सार जी, अविनाशी दुख नाँहि भवोदधि-पारजी। यह गुण अतिशय धार देव अरिहन्त जी, याकों भक्ति सभावन सेवत सन्तजी।। ऊँ ह्रीं श्री अनन्तसुखसहितायै अर्हद्भक्तिभावनायै अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
बल अनन्त के धार देव अरिहन्त जी, यह अतिशय इनमाँहि और नहिं अन्तजी। इनकी भक्ति सुभावन सुख की दाय है, सो जन तीरथपद को निश्चय पाय है।। ऊँ ह्रीं श्री अनन्तबलसहितायै अर्हद्रक्तिभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
(गीता छन्द)
इन आदि अतिशय और सुखद, लहे तिनमें सारजी।
सो देव हैं अरिहन्त जग में, भविकजन के तारजी।। इन भक्ति भावन जोकरे जिय, लहे जगथुति की मही।
अरिहन्तभक्ति सुभाव भावे, तें लहें शिव की सही।। ऊँ ह्रीं श्री अर्हद्भक्तिभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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