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जयमाला
दोहा
अथिर दशा संसार की, देख जु भये उदास। भये मगन निजरूप में, करें स्वगुण परकास।
(बेसरी छन्द) जग लख चपल भव बैरागे, तब आतमरस माँही लागे। भव में जाने दुःख अपारा, सो संवेग भाव जग न्यारा।। मात तात सुत सज्जन भाई, नारी आदि और सुखदाई। ये सब स्वारथ के लख सारा, धर संवेगभाव जग न्यारा। तन धन राजलक्ष्मि क्षयकारी, बिजली जिसी चपल है सारी। राखी रहे न इक छिन प्यारा, धर संवेगभाव जग न्यारा।।
देव इन्द्र का सुख नश जावे, खन चक्रीपद देखत ढावे। इमि लखि जगत महादुखकारा, धर संवेगभाव जग न्यारा।। काल अनादि जगत भरमाये, नानातन धरि अति अकुलाये। लखानसुख सब दुख का भारा, धर संवेगभाव जग न्यारा।। पाप किये जिय नरक सिधायो, या तिर्यंची विर्षे दुख पायो।
अब ओसर नीका है प्यारा, धर संवेगभाव जग न्यारा।। पुण्य उदय नर देव बनाया, तंह मनवांछित बहु सुख पाया।
सो भी भये देख क्षयकारा, धर संवेगभाव जग न्यारा।। कौन महादुख जग के भाखे यह जिय इन्दी सुख अभिलाखे।
तातें तजों जान क्षयकारा, धर संवेगभाव जग न्यारा।।
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