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सो पूजि हों संवेग भावन, ताहि में यह दुख नहीं।। ऊँ ह्रीं श्री इष्टवस्तुवियोगदुःखविरक्ततायै श्रीसंवेगभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जो मिले वैरी सिंह सूर अरु, जीव दुष्ट अनेकजी। यह है अनिष्ट संयोग का दुख, कहे तिनको टेकजी।। इन आदि कारण और दुख को, जानि के विरकत भये।
सो जजों भाव संवेग मनवच, तासफल बहु शिव गये।। ऊँ ह्रीं श्री अनिष्टवस्तुवियोगदःखविरक्ततायै श्रीसंवेगभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तन रोग पीड़ा होय बहुती, कण्ठ तन आयुध लगे। नित स्वास कास जलोदरा तन, आयतें पीड़ा जगे।। इन आदि पीड़ा मिलन के दुख, जानके विरकत भये।
सो जजों भाव संवेग मनवच, तासफल बहु शिव गये।। ऊँ ह्रीं श्री पीड़ासंयोगदुःखरहितायै श्रीसंवेगभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
इन आदि कारण और दुख के, जगत में पूरण सही। तिस सहित चउगति जीव भरिये, देखिये सबही मही।।
इमि जान विरचे जगत सेती, धर्म में अति दृढ़ भये।
सो जजों भाव संवेग मनवच, तासफल बहु शिव गये।। ऊँ ह्रीं श्री अनेकदुःखमयजगदबलोकनरहितायै श्री संवेगभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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