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परमावधीतें अधिक जाने, द्रव्य क्षेत्र व काल की। सर्वावधी सो जान भविजन, छिपे नाँही बाल की।। जाने असंख्या लोक अधिके, काल भी संख्या गुना।
तारूप जो उपयोग वरते, ज्ञान सो पूजों मना।। ऊँ ह्रीं श्री सर्वांवधिज्ञानोपयोग भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जो सरल रूचीचित्तचिन्तित जान है त्रयकाल की। सो ऋजू मनपरजय सुज्ञानी, पूज्य जग गुन पालकी।।
ता रूप जो उपयोग बरते, ज्ञान सुखदा सारजी।
मैं जजों मनवचकाय नमि नमि, भक्ति मुखतें धारजी।। ॐ ह्रीं श्री ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानोपयोग भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सरल मन व वक्र मनकी, शुभाशुभ जो भावना। ते होय निज पर जीव विकलप, भेद सो सब पावना।।
जो विपुल मनपर्यय सुज्ञानी रहे समभावन सही।
ते जजों ज्ञानपयोग मनवचकाय, नमि नमि थुति कही।। ऊँ ह्रीं श्री विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानोपयोग भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल छन्द)
केवलज्ञान महान सकलविध जान है, ज्यों ज्यों भइ व होय होयगी मान हैं। मूरति और अमूरति काल अनन्त को, जानत सारी बात जजों अरिहन्त को।।
ऊँ ह्रीं श्री केवलज्ञानोपयोग भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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