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नानाआयुध देह विनाशक, घोर उपद्रव आवे। आर्तरौद्र की परिणति व्यापै, कोई न आन बचावे ॥ शान्तिनाथ के पद-पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिवधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें॥9॥
ओं ह्रीं विविधायुधोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
जलचर प्राणी दुष्ट नक्र औ, मत्स्य भयंकर भारी । कर्म उदयजल बीच सतावें, व्याकुल हों नर नारी ।। शान्तिनाथ के पद पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिवधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें॥10॥
ओं ह्रीं दुष्टजलचरजीवाद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वन पर्वत के मध्य चतुष्पद, सिंह गजादिक प्रानी। आक्रामक बन दुष्ट सतावें, होय दुःखी अज्ञानी ।। शान्तिनाथ के पद पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें ।। 11॥
ओं ह्रीं व्याघ्रसिंहगजादिवनपर्वतवासिश्वापदाद्युपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भूचर खेचर क्रूर जीव-कृत, तीव्र उपद्रव आवे। आशापास बँधा यह प्राणी, परपरणति लपटावे ॥ शान्तिनाथ के पद-पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें ।।12।। ओं ह्रीं भूचरगगनचरक्रूरजीवोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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