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आचार्य परम पद अभिलाषी, परमेष्ठी मंगलरूप महा। प्रातः मध्यान्ह सांध्यवेला, कर प्रतिक्रमण दुष्कर्म दहा।। आक्रमण अन्य पर चोट रूप, आचार विचार बनाता है।
पुनि प्रतिक्रमण अपने अन्दर, चर्या त्रुटि बोध कराता है।। ऊँ ह्रीं प्रतिक्रमणावश्यक गुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।26।।
आचार्य श्रेष्ठ स्वाध्याय सदा, जीवन का आवश्यक मानें। जिनआगम का आश्रय लेकर, आतम स्वरूप को पहिचानें।।
प्रभु वीतराग जिन की वाणी, सत्पथ का बोध कराती है।
जिनवाणी पठन, मनन, अनुशीलन मोक्षमार्ग दर्शाती है।। ऊँ ह्रीं स्वाध्यायावश्यक गुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।27।
कायोत्सर्ग आवश्यक को, आचार्य श्रमण चर्या मानें। तन से ममता का भाव छोड़, धर्माराधन साधन जानें।। जिनबन्दन, सामायिक, प्रवचन के आदि अंत में हो निश्चल।
शुभ णमोकार का जाप करें होकर निर्भय, मन में निर्मल।। ऊँ ह्रीं कायोत्सर्गावश्यक गुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।28।
त्रय गुप्ति मूल गुण
चंचल मन वश में रखे, परम पूज्य आचार्य।
यही आत्म कल्याण का, रहे अग्रणी कार्य।। ऊँ ह्रीं मनोगुप्तिगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥29॥
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