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मुनि धारण करते वृत्ति परी संख्यान तपश्चर्या अविरल। लें कठिन नियम आहार समय, यदि निराहार, फिर भी न विकल। आचार्य मुनीश्वर के सन्मुख, बस आत्म साधना लक्ष्य जहां।
आहार मात्र आवश्यकता, तन पोषक पर नहिं दृष्टि वहां।। ऊँ ह्रीं वृत्तिपरिसंख्यान तपोगुणभूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥3॥
जिह्वा के वशी नहीं मुनिवर, वे रसना को वश में रखते। आहार समय घृत दुग्धादिक रस का परित्याग सदा करते।। भोजन कैसा स्वादिष्ट बना, इसका इनको कुछ ध्यान नहीं।
खट्ठा मीठा कडुआ नीरस, इसकी इनको पहिचान नहीं।। ऊँ ह्रीं रस परित्याग तपोगुणभूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
मन की चंचलता रुके अतः, आचार्य करें एकान्तवास। भौतिक चर्चा मन खिन्न करे, हर्षित कर दे, कर दे उदास। इसलिए वीतरागी मुनिगण, निज आत्म साधना रत रहते।
एकान्तवास की कठिन तपस्या के बल कर्मों को दहते।। ऊँ ह्रीं विविक्ताशयन तपोगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
पुद्गल पिण्डों से बनी देह, चेतन का साथ नहीं साधै। फिर चेतन इसके पोषण में, क्यों पाप पुण्य गठरी बांधे।। इसलिए काय के क्लेष मुनीश्वर को विचलित नहीं कर पाते।
यों षट विध वाह्य तपस्या वल, द्रुत कर्म निर्जरा कर जाते।। ऊँ ह्रीं काय क्लेश तपोगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
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