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जन आल्हादित, दिक आल्हादित, नभ पुलकित वातावरण विमल। फिर जगत धरित्री, धरती भी, कैसे न धरै आनन्द अतुल । विश्वेश्वर श्री अर्हन्तदेव की सेवा का शुभ भाव लिये।
इकयोजन तक हो गई धरा, दर्पण वत उज्ज्वल कान्ति लिये॥26॥ ऊँ ह्रीं दर्पणवत् पृथ्वीतल रूपातिशय गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति
स्वाहा।
अरहन्त देव भवि जीवों के, कल्याण हेतु करते बिहार। करुणा पूरित, वात्सल्यमयी, उनकी छवि होती निर्विकार ।।
भगवान जहां पर धरते पग, सुर पहिले कमल रचाते हैं।
प्रभु चरणकमल की संगत से, सुर हृदयकमल खिल जाते हैं॥27॥
ऊँ ह्रीं चरणकमल तल स्वर्ण कमल रूपातिशय गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं
निर्वपामीति स्वाहा।
जिनराज चलें करते बिहार, यो अवधि ज्ञान सुरगण पाया।
परभव सुधारने में साधन, पुण्यार्जन उनके मन भाया।
सुरगण जिस क्षण नभ में, प्रभु दर्शन लाभ मिला उनको।
सब बोल उठे जिनवर की जय यों जयध्वनि हर्षाती सबको॥28॥
ऊँ ह्रीं नभसि जयघोषातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
तब मंद सुगंधी पवन चले, सबके मन को शीतल करती। मानों देशान्तर में जाकर, प्रभु गुण गरिमा वर्णन करती।।
मारुत कहती, हम इक इन्द्रिय, प्रभु संगत सुख पाया विशेष। फिर जिनवर पथ के अनुयायी, मानव भी बन सकते महेश ॥29॥ ऊँ ह्रीं मन्दसुगंधिवयाररूपातिशयगुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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