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सब जीव मित्रता भाव धरें कोई न किसी से भय खावैं। गौ सिंह नदी तट पर संग संग, निर्भय हो जल पीने जावैं ।।
जन्मान्तर का तल वैरभाव, सब जीव मित्रता भाव धरै । अर्हन्त देव की महिमा में, सुर वातावरण प्रभाव करें || 22 ||
ऊँ ह्रीं परस्पर मैत्रीभाव रूपातिशयमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अरहन्त देव देवाधिदेव के, दर्शन के अवसर पाकर।
उन सभी दिशाओं के स्वामी, दिक्पाल नमन करते आकर ।।
प्रभु में श्रद्धा के वशीभूत, दश दिशा रचाते वे निरमल।
आल्हादित जन जनको करता, दश दिशाचक्र होकर उज्ज्वल || 23॥
ऊँ ह्रीं दशदिशानिर्मलता रूपातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जो नभउन्नत अरु अन्तरहित, होकर स्वप्रतिष्ठ रहे सुस्थिर। अर्हन्त देव के दर्शन से, आल्हादित हो, हो गया विनत ।।
नभ की प्रसन्नता जाग उठी, ऐसा आकाश हुआ उज्जवल। ऐसे शुभ क्षण तब ही आते, जब प्रभु अर्हन्त लहें केवल৷24।।
ऊँ ह्रीं निर्मलाकाश रूपातिशयगुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सब सृष्टि विनय प्रभु के सन्मुख, आल्हादित नभ अरु दिगदिगंत।
ऐसा पावन अवसर पाकर, सब ऋतुओं पर छाया बसन्त।। सब ऋतुओं के फलफूल खिले, कोई इसमें नहिं चूक सका। यह वीतरागता की महिमा, जो प्रमुदित मन करती सबका।। 25।। ॐ ह्रीं षट् ऋतुफलित पुष्प फल रूपातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति
स्वाहा।
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