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स्वा-बीजाक्षर भव दुख हर्ता । साम्य भाव मन में नित भरता।। ऊँ ह्रीं ह्री-बीजाक्षराय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।176।।
हा- बीजाक्षर जन मन हारी। पाप पलायन करता भारी ।। ॐ ह्रीं - हा - बीजाक्षराय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। 177 ॥
न्यायादिक का संग कराये, मुनिजन का जो ध्यान करावे । मंगल लोकोत्तम में मन लावे, पंच गुरु की शरण पठावें ।। ऊँ ह्रीं अनादि सिद्ध मंत्रेभ्यो अघ्यं ।। 178॥
ऊँ ह्रीं शतैक सप्त अष्टोत्तर, कमलोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जयमाला
परम गुणों के परम खजाने, सप्त दुःख लोपन हम माने। त्रिभुवन को जो पावन करते, मन चाहे उत्तम फल भरते।। भव-हर जो हैं आप कहाते, केवल रवि से हित बतलाते। नाना नय में दक्ष कहाते, पक्षपात को सदा मिटाते ॥1॥ भरत तथा ऐरावत के दश, विदेह क्षेत्र के आठ तथा शत। भूतकाल में हुए अनन्ता, आगे भी जिनराज अनन्ता।।2। णमो अरिहंताणं जनत्राता, समवशरण त्रिभुवन जगभ्राता। अष्ट प्रातिहार्य शुभ लक्षण, कर्मप्रकृति रिपु हत सुविचक्षण॥3॥ गर्भ जन्म भय नाशन संता, राग जरा मरणादि प्रहंता । अष्ट कर्म रिपु दहन सुकर्ता, अष्ट गुणादि सुमूल - विभर्ता ।।4। णमो सिद्धाणं मंत्र सुकारण, जयकार भवहर जन वर तारण।
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