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चत्तारि लोगुत्तमा
च- कार बीज जय देता है शुचि, मुनीन्द्र गीत में मम होत है रुचि । पुराण रूप भुवनेक भूप है, पूजूँ इसे मैं अति सौम्य रूप है।। ॐ ह्रीं "व" बीजाक्षराय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥75॥
ता-कार यह बीज विश्व है, विस्तार बोध करता स विश्व है। दुखी-जनों को यह तारता है, पूजूं इसे मैं अघ नाशता है। ॐ ह्रीं "त्ता” बीजाक्षराय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।76॥
रि-कार बीजाक्षर कर्म वह्नि है, जलके समान ही शुद्ध करे अतीव है। सुकर्मध्यानामृतपेय रूप है, पूजूं इसे मैं यह सौख्य कूप है॥ ॐ ह्रीं "रि" बीजाक्षराय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥77॥
(दोहा)
लो-कार बीज सुर वर्ग से, मुनि से पूजितपू
मन चाहे फल भव्य को, देता है यह सूत ।
ॐ ह्रीं “लो” बीजाक्षराय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।78॥
गु-सहित-3 बीज जिनागत, तारक भव्य समूह। सुभारती से साध्य है, पूजूं इसकी रूह।।
ॐ ह्रीं “गु” बीजाक्षराय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।79।।
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