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जपूं तुम नाम हिये बिच धार, कुदेव कुग्रन्थ सबै अति छार।।
(धत्ता) जै सिद्ध निरंजन बुध मन रंजन बस बिध भंजन शिवधारी, ___ मैं पूजन आयो अर्घ चढायो ‘चंद' जनम मति दखहारी।। ऊँ ह्रीं अनंत वीर्य लब्धि धारक जिनेभ्यो पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।।
(दोहा) वीर्य लब्धि धर जिन तणी, पूजा परम रसाल। मन वच तन जो नर करै, पावै मोक्ष विशाल।।
क्षायक सम्यक् लब्धि पूजा
(सोरठा) मूल मिथ्यातनशाय, क्षायक सम्यक पाइयो। सो जिन तिष्ठो आय, मन वच तन स्थापन करूं।। ॐ ह्रीं क्षायक सम्यक् लब्धि धारक जिन अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। अत्र तिष्ठ
तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अष्टक (सुंदरी छंद) अमल शीतल नीर सुधारिया। जनम मृत्यु जरा क्षय कारिया।
लब्धिक्षायक सम्यक् धारकं, जिनवरं युग पूजि पदाब्जकम्।। ऊँ ह्रीं क्षायक सम्यक् लब्धिधारक जिनेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।।
मलय चंदन कुंकुम मिश्रितं, घसि भवातप नाशन सश्रितं।
लब्धिक्षायक सम्यक् धारकं, जिनवरं युग पूजि पदाब्जकम्।। ऊँ ह्रीं क्षायक सम्यक् लब्धिधारक जिनेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
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