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जल आदिक वसु द्रव्य ले, शुभ अर्घ सजाई। जय जय जय जिन गाय के, बादित्र बजाई।। नवों लब्धि मोहि दीजिये, सन्मति जिनराई। पूजों मन वच कायतें, मोह मल्ल हराई।
ऊँ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अनध्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा दान लाभ अरु भोग, पुनि उपभोग सु पाइयो। वीर्य अनंत सुयोग, दंशण केवल थाइयो।।1।। क्षायक सम्यकपाय, क्षायक चारि जिनत लह्यो। पूजों अर्घ चढाय, जोरि जुगल शिर
नयो।।3॥
दान लब्धि पूजा
(दोहा) अंतराय विधि अंत कर, दान लब्धि प्रगटाय। नमूं जास पद शीश धर, जजों थापि हरषाय।। ॐ ह्रीं परम ब्रह्म परमेश्वर दान लब्धि धारक जिनेन्द्र अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननम्।
ऊँ ह्रीं परम ब्रह्म परमेश्वर दान लब्धि धारक जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं परम ब्रह्म परमेश्वर दान लब्धि धारक जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधिकरणम्।
(सोरठा) उज्जवल वारि सुधार, कंचन भुंग भराइया। जन्म जरा मृत्यु हार, दान लब्धिधर जिन जजों।।
ऊँ ह्रीं दानलब्धिधारकजिनेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।।1।
चंदन सार घसाय, कनक कटोरी में धरूं। भव आताप नशाय, दान लब्धिधर जिन जजों।।
ऊँ ह्रीं दानलब्धिधारकजिनेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
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