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शान्ति जिनाष्टकको जो भविजन, धारें नित्य हृदय में। सुख सम्पति ऐश्वर्य सहित हो, संशय नांहिं विजय में।10। ओं ह्रीं जगच्छांतिकराय श्रीशान्तिनाथाय नमः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रथम बलय पूजा प्रारम्भ
(स्थापना) हे शान्तिप्रभो ! हे शान्तिप्रभो, मेरे मन-मन्दिर में आओ। अघवर्ग-विनाशन-हेतु प्रभो, निज शान्त छवि शुभ दर्शाओ।।1।।
कर्मो के बन्धन खुलते हैं, प्रभु नाम तुम्हारा जपने से। भव-भोग-शरीर विनश्वर तब, क्षणभंगुर लगते सपने से।।2।।
नरजन्म सफल यह होता है, जब ध्यान तुम्हारा आता है।
निजरूप में लीन हुआ, प्रभु ! वह, भव-सागर से तर जाता है।।3।। ओं श्री ह्रीं सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! पंचम चक्रेश्वर ! द्वादशकामदेव! षोडशतीर्थंकर! अष्टप्रातिहार्य संयुक्त ! श्रीशान्तिनाथ भगवन ! अत्र अवतर अवतर, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्! इति
प्रथमवलयाष्टकोष्ठोपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।
स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्निं बिन्दु षट् स्वरम्।
हंबीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शान्तिनाथ महाम्यहम्।1। ओं ह्रीं अशोकतरुसत्प्रातिहार्य मण्डिताय अशोकतरुयुक्त शोभनपदप्रदाय हम्→ बीजाय
सर्वोपद्रवशान्तिकराय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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