________________
तीन लोक नित्य रूप जानि नराकारजी। चार गति घमि जीव दःख ले अपार जी। लोक को स्वरूप जानि आत्म तत्व ध्यायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।10।
ऊँ ह्रीं श्री लोकरूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वस्तु को स्वभाव धर्म जीव रक्षा को। दर्श बोध आचरण जु रत्न तीनो सही।। चार विधि दान अरू धर्म दश ध्यायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।11।।
ऊँ ह्रीं श्री धर्मरूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गैर वस्तु को जो है सुलभ अपनावना। ज्ञान निधि आपनी न सहजजी लहावना। ताही पाय साधु शुद्ध आत्मरूप ध्यायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।12।
ऊँ ह्रीं श्री बोधिदुर्लभरूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
भ्रात सुत नारि गज घोटकादि भाइ है। दास दासी पिता सुताहि परिजनाइ हैं।। संग चेतन तजो जानि दुःखदाय जी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।13।। ऊँ ह्रीं श्री चेतनरूपब्रह्मपरित्यागाकिंचन्य-धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्न कंचन रजत ठाम वस्तर सही। महल वन बाग बहुग्राम जुत शुभ सही।। संग निर्जीव छांडि रूप ध्याय जी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।14।। ऊँ ह्रीं श्री अचेतनरूपब्रह्मपरिग्रहत्यागाकिंचन्य-धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतरंग संग राग आदि अरू द्वेष है। या थकी जीव लहै चार गति क्लेश है।। जानि यह अंतरंग संग छुड़वायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।15।। ऊँ ह्रीं श्री अन्तरंगपरिग्रहत्यागाञ्चिन्य-धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
643