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जीव एकहि फिरै चार गति आपही। एक भोगै सदा पुण्य या पाप ही।। कोउ नहिं दुसरो आप दुःख पायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।4।।
ऊँ ह्रीं श्री एकत्वरूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व द्रव्य भिन्न कोई मिले न जानिये। नीर क्षीर के समान जीव देह मानिये।। जानि इमि साधु निर्ग्रन्थ सुख पायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।5।।
ऊँ ह्रीं श्री अन्यत्ररूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देह में पवित्र वस्तु एक नहिं पाय है। सप्त धातू भरी द्वार नौ बहाय है।। जीव निर्मल महा शुद्ध चेतनायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।6।। ऊँ ह्रीं श्री अशुचिरूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
जोग मिथ्यात्व अव्रत कषाय जानिये। और परमाद भाव कर्म आठ मानिये।। त्यागि दुर्भाव साधु शुद्ध रूप ध्यायजी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी।।7।।
ऊँ ह्रीं श्री आस्रवरूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्यतै विरक्त है जु आपरूप ध्याव ही। राग द्वेष को विहाय शुद्ध तत्त्व पावही।। भाव संवर यही जानि सुखदाय जी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी॥8॥
ऊँ ह्रीं श्री संवररूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
पाप पुण्य भवतें जु कर्म बन्ध है सही। शुद्धता प्रभाव कर्म जाय निर्जरा लही।। जानि इस भांति विन राग पद ध्याय जी। धर्म आकिंचना पूजि भक्ति भायजी॥9॥
ऊँ ह्रीं श्री निर्जरारूपोत्तमाकिंचन्य-धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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