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चक्षु इन्द्रियतने पांच रूप भोग हैं। ताहि चाहें अमर नाहिं तन रोग है।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।8।। ऊँ ह्रीं श्री चक्षुरिन्द्रियभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग संगीत इन आदि सुर साजिये। सप्त स्वर भे कर्ण भोग मन राजिये।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।9।
ऊँ ह्रीं श्री कर्णेन्द्रियभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भोग वांछित घने चित्त आधारजी। ताहि सेय सेय जीव सुख लहै अपारजी।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।10॥
ऊँ ह्रीं श्री मनवांछतिभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन अशुभ आपको सु चाम मय जानिये। सप्त मल घात पूरित सुधिन आनिये।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करे। पूजि शौच धर्म को ज शौच थानक धरै।।11॥
ऊँ ह्रीं श्री तनसम्बन्धीभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रतन नवधादि भरपूर घर में सही। कोटि नित दान देते सुक्षय हो नहीं।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।12।।
ऊँ ह्रीं श्री धनवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रूप में शची समान नारी घर में घनी। शीश आज्ञा धरै प्रीत रस में सनी।। जानि सब अथिर उर भाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।13॥
ऊँ ह्रीं श्री वनिताभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायायं निर्वपामीति स्वाहा।
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