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चाह चक्री तने सुखन को उर नहीं। सहस छिनवै तिया और षट्खंड मही।। जान सब अथिर उरभाव निर्मल करे। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।2।।
ऊँ ह्रीं श्री चक्रिपदभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
खण्ड तिनको जु राज नारि बहु जानिये। चारि विधि सैन सुर नर खगादि मानिये।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।3।। ऊँ ह्रीं श्री नारायणपदभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कामदेव को सुरूप देखि देव मन हरे। भोग वांछित सकल देव सेवा करें।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।4।।
ऊँ ह्रीं श्री कामदेवपदभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ परकार सपरस विर्षे जानिये। द्रव्य क्षेत्रकाल अनुसार भाव मानिये।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करे। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।5।। ॐ ह्रीं श्री स्पर्शनेन्द्रिय-भोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांच परकार रस जानि शुभ सारजी। भोग वांछे सभी जगत दुखकार जी।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करै। पूजि शौच धर्म को जु शौच थानक धरै।।6।
ऊँ ह्रीं श्री रसनेन्द्रियभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घ्राण इन्द्रियतने गंध दो हैं सही। ताहि अनुकूल पाय जीव साता लही।। जानि सब अथिर उरभाव निर्मल करे। पूजि शौच धर्म को ज शौच थानक धरै।।7।
ऊँ ह्रीं श्री घ्राणेन्द्रियभोगवांछाविहीन-शौचधर्मांगायायं निर्वपामीति स्वाहा।
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