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सिद्ध शिला पैतालीस लाखा, योजन विस्तृत जिन वच भाषा।
तत्रस्थि त आतम शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावें।। ऊँ ह्रीं श्री सिद्धशिलास्थित मुक्तात्मपदमनार्जवधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
गुण छत्तीस सुधारक सुरा, आचारज सब गुण भरपूरा। तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावै।। ऊँ ह्रीं श्री आचार्यपदनमनार्जवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
आचारज सब गुण भरपूरा, आचारादि गुण युत सूरा। तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधा4।। ऊँ ह्रीं श्री आचार्यपदपरोक्षनमनार्जवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।6।
गुण पचीस उवझाय सु माही, ग्यारह अंग चौदह पुरवाहीं। तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावें।। ऊँ ह्रीं श्री उपाध्यायपदनमनार्जवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥
बहु गुण धर उवझाय सु जानो, दरहितै तिनको चित आनो।
तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावें।। ऊँ ह्रीं श्री उपाध्यायपदपरीक्षनमनार्जवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।8।।
बीस आठ गुण साधन साधा, सो नहि लहै जगत की बाधा। तिनपद सरल भाव शिर नावै, सो आर्जव वृष जजि शिवधावें।। ऊँ ह्रीं श्री साधुपदनमनार्जवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
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