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वीतराग देव कही वानि सो धर्म है। ता सुनै जीव निज हरै भव भर्म है।। मन वचन काय श्रुतपाद सिरनाय है। सो जजौं धर्म मार्दव सु शिवदाय है।।2।। __ऊँ ह्रीं श्री जिनधर्मपद नमन-मार्दवधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मको सेय तप लेय कर्म जार जी। भये सिद्ध देव तन रहित सुखकार जी।। लेय इन नाम मन वचन शिरनाय है। सो जजौं धर्म मार्दव सु शिवदाय है।।3।।
ऊँ ह्रीं श्री सिद्धपदनमन-मार्दवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धारि छत्तीस गुण सरि सुखदाय जी। धर्म तप भाव सों गुप्त धरि भाय जी।। मान तजि नमन इन पद विषै लाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो।।4।।
ऊँ ह्रीं श्री आचार्यपदनमन-मार्दवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धारि गुण पांच अरु बीस उवझायजी। और भी अनेक गुण पास तिन थायजी।। मान तजि इन चरण कायको नाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो।।5।।
ऊँ ह्रीं श्री उपाध्यायपदनमन-मार्दवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षेत्र अतिशय तहां धर्म को धाय है। नमन बहु जिय करै दैव गुण गाय है।। मान तजि क्षेत्र शुभ जानि शिर नाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो।।6।।
ऊँ ह्रीं श्री अतिशयक्षेत्र पद नमन-मार्दव धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव जिनकी सु प्रतिमा अकृत्रिम इसी। रूप द्युति ध्यान मुद्रा कही जिन जिसी।। मान तजि शीश इन चरण को सुनाइयो। धर्म मार्दव सु तासु फल मोक्ष पाइयो।।7।। ऊँ ह्रीं श्री अकृत्रिमजिनचैत्यपद नमन-मार्दवधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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