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श्री दशलक्षण विधान (कवि श्री टेकचन्द जी)
(जोगी रासा)
नेमी नाथो देतो साथो, भव भव और न चाहूं। भक्ति तिहारी, निशदिन वच, काय लाय करि गाऊँ।। धर्मकह्यो तुम, वानी दश विधि, सो मोहि सहाई सहाई । करुणासागर, समरस गर्भित शीश नमों थुति गाई ।।
(गीता छन्द)
धर्म के दश कहे लक्षण, तिन थकी जि सुख लहै। भवरोग को यह महा औषधि, मरण जामन दुख दहै।।
यह वरत नीका मीत जीका, करो आदरतैं सही। मैं जजों दशविधि धर्म के अंग, तासु फल है शिवमही ।।
(पद्धरि छन्द)
यह धर्म भवोदधि नाव जान, या सेयें भवदुख होइ हान। यह धर्म कल्पतरु सुक्खपूर, मैं पूजों भवदुख करन दूर ||
(गीता छन्द)
यह वरत मन कपि गले माहीं, साँकल मन जानिये । गज अक्ष जीतन सिंह जैसो, मोहतम रवि मानिये ।। सुरथान मांही वरत नाहीं, मनुजहूं शुभ कुल लहै।
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