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ढाई द्वीप में तीन काल के, असंख्यात जिनराज। वन्दनीय जो तीन लोक के, वन्दं धर्म जहाज।10। चन्द्रकलासम ज्योति मनोहर, अंग जिनेश को राजत है। पद्म पुनीत प्रभा सम उज्ज्वल, देह प्रभु की विराजत है। कन्ठ-मयूर, सुकंचन नीरद, तुल्य जिनेन्द्र की अंग प्रभा। तीर्थेश्वर चौबीस अलौकिक, रूप-विमुग्ध है देव सभा।।11।
दोहा भूत भविष्यत वर्तमान के, चौबीसों जिनराज। रत्नत्रय से भूषित जग में, अनुपम रहे विराज।12। अरिहन्त सिद्ध त्रिलोक पूजित, धर्मध्वज आचार्य को। मुनिवृन्द के शिक्षा-प्रदायक, पूज्य पाठक आर्य को।।
उन साधुओं को जो निरन्तर, ज्ञान ध्यान प्रवीण हैं। तप शान्ति की शुचि साधना में, जो सदा तल्लीन हैं।13। कर के प्रणाम त्रियोग से, मैं शान्तिनाथ विधान को। प्रारम्भ करता हूँ बढ़ाने, भक्ति श्रद्धा ज्ञान को।। लोक के सब गणधरों को, भक्ति श्रद्धा भाव से। कुन्द-कुन्दा दि दिगम्बर, मुनिवरों को चाव से।14। करता प्रणाम इसीलिये कि, धर्म की ही नित विजय। निर्विघ्न हो यह पाठ पूरा, है यही मेरी विनय।15।
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