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भक्तामर महामण्डल पूजा जयमाल ( त्रोटक वृत्तम्)
शुभदेश- शुभंकर-कौशलकं, पुरुपट्टन-मध्य सरोज-समं। नृप-नाभि-नरेन्द्र-सुतं सुधियं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं ।। कृत-कारित-मोदन-मोदधरं, मनसा वचसा शुभकार्य - परं। दुरिता पहरं चामोद-करं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं।। तव देव सुजन्म-दिने परमं, वरनिर्मित-मंगल-द्रव्यशुभं। कनकाद्रिसु-पांडुक-पीठगतिं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं । ।
व्रतभूषण-भूरि-विशेष-तनुं, करकंकण- कज्जल-नेत्रचणं। मुकुटाब्ज-विराजित-चारुमुखं, प्रणमामि सदा वृषभादि-जिनं।। ललितास्य-सुराजित-चारुमुखं, मरुदेवि - समुद्भव - जातसुखं। सुरनाथ-सुताण्डव-नृत्यधरं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं ।।
वर-वस्त्र-सरोज-गजाश्वपदं, रथ-भृत्यदल चतुरंगजदं। शिव-भीरु-सुभोग-सुयोगधनं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं ।। गतराग- - सुदोष-विराग-कृतिं, सुतपोबल-साधितमुक्तिगतिं।। सुख-सागर मध्य-सदानिलयं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं ।। सु-समोसरणे रति-रोगहर, परिसदृश-युग्म-सुदिव्य-ध्वनिं। कृत-केवलज्ञान-विकाशतनं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं ।। उपदेश-सुतत्त्व-विकाशकर, कमलाकर - लक्षण-पूर्ण भरं । भवित्रासित-कर्म कलंकहरं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं । । जिन ! देहि सुमोक्षपदं सुखदं, घनघाति - घनाघन - वायुपदं । परमोत्सव-कारित-जन्म - दिनं, प्रणमामि सदा वृषभादि जिनं ।। संसार-सागरोत्तीर्णं, मोक्षसौख्य-पदप्रदं। नमामि सोमसेनार्च्यम्, आदिनाथ जिनेश्वरम्॥ ऊँ ह्रीं पूजाकर्तुः कर्म नाशनाय आगत विघ्न भय निवारणाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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