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जलादिक द्रव्य मिलावये, विविध वादित्र बजवाये।
अधिक उत्साह करि तन में, चढ़ावो अर्घ चरनन् में।।9।। ऊँ ह्रीं भूत भविष्यत् वर्तमानकाल सम्बन्धि पंच प्रकार सर्वमुनीश्वरेभ्यः
अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला सोरठा तारन तरन जिहाज, भव समुद्र के माँहि जे। ऐसे श्री ऋषिराज, सुमरि सुमरि विनती करूँ॥1॥
(पद्धडी छन्द) जय जय श्री मुनिवर-युगल पाय, मैं प्रणD मन वच शीस नाय। जे सब असार संसार जानि, सब त्यागि कियो आतम कल्यान।।2।।
क्षेत्र वास्तु अर रत्न स्वर्ण, धन धान्य द्विपद अरु चतुक चरण। अरु कौप्य भांड दश बाह्य भेद, परिग्रह त्यागे नहिं रंच खेद।।3।। मिथ्यात्व तज्यो संसार मूल, पुनि हास्य अरति रति शोक सूल। भय सप्त जुगुप्सा स्त्रीय वेद, फिरि पुरुष वेद अरु क्लीव वेद।।4।।
क्रोध मान मायारु लोभ, ये अंतरंग में करत क्षोभ। इम ग्रंथ सबै चउवीस एह, तजि भये दिगंबर नगन जेह।।5।। गुणमूल धारि तजि रागदोष, तप द्वादश धरि तन करत शोष। तृण कंचन महल मसाण मित्त, अरु शत्रुन मैं सम भावचित्त।।6।।
अरु मणि पाषाण समान जास, पर परिणति में नहिं रंच वास। वह जीव देह लख भिन्न भिन्न, जे निज स्वरूप में भाव किन्न।।7।।
ग्रीष्म रितु पर्वत शिखर वास, वर्षा में तरुतल है निवास। जे शीतकाल में धरत ध्यान, तटनीतट चोहट शुद्धथान।।8।।
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