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आप सत तीर्थ त्रयरत्न से निर्मिता, भव्य लेवें शरण होय भव भव रिता। वे कुशल से तिरें संसृति सागरा, जाय ऊरध लहें सिद्ध सुन्दर धरा।।4।। यह समवशरण भवि जीव सुख पात हैं, वाणि तेरी सुनें मन यही भात हैं। नाथ दीजे हमें धर्म अमृत महा, इस बिना सुख नहीं दुःख भव में सहा।।5।।
ना क्षुधा ना तृष्णा ना द्वेष है, खेद चिन्ता नहीं आर्ति ना क्लेश है। लोभ मद क्रोध माया नहीं लेश है, वन्दता हूं तुम्हें तू हि परमेश है।।6।।
जय परम ज्योति ब्रह्मा मुनीश, जय आदिदेव वृषनाथ ईश। परमेष्ठी परमातम जिनेश, अजरामर अक्षय गुण निवेश।।1।
शंकर शिवकर हर सर्व मोह, योगी योगीश्वर काम द्रोह। हो सूक्ष्म निरंजन सिद्ध बुद्ध, कर्माजन मेटन तोय शुद्ध।।2।। भवि कमल प्रकाशन रवि महान, उत्तम वागीश्वर राग हान। हो वीत द्वेष हो ब्रह्म रूप, सम्यग्दृष्टी गुण राज भूप।।3।।
निर्मल सुख इन्द्रिय रहित धार, सर्वज्ञ सर्वदर्शी अपार। तुमवीर्य अनन्त धरो जिनेश, तुमगुण कथ पावतनहिं गणेश।4।।
तुम नाम लिये अघ दूर जाय, तुम दर्शनते भव भय नशाय।
स्वामिन् अब तत्त्वन का प्रभेद, कहये जासे हठे कर्म छेद।।5।। ॐ ह्रीं चतुर्विंशति जिनेभ्यो ज्ञानकल्याणक प्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
मोक्षकल्याणक पूजन
(त्रिभंगी) जय जय तीर्थंकर मुक्तिवधू वर भवसागर उद्धार करं, जय जय परमातम शुद्ध चिदातम कर्मकलंक निवारकरं। जय जय गुणसागर सुखरत्नाकर आत्ममगनता सार धरं, जय जय निर्वाणं पाय सुज्ञानं पूजत पग संसार हरे।।
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