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आत्म को जान के पाप को भान के, तत्त्व को पाय के ध्यान उर आन के। क्रोध को हान के मान को हान के, लोभ को जीत के मोह को भान के।।2।।
धर्ममय होय के साधते मोक्ष को, बाधते मोक्ष को जीतते द्वेष को। शान्तता धारते साम्यता पालते, आप पूजन किये सर्व अघ टालते।।3।। धन्य हैं आज हम दान सम्यक करें, पात्र उत्तम महा पाप के दुःख दरें। पुण्य सम्पत भरें काज हमरे सरें, आप सब होयके जन्म सागर तरें।।4।।
ऊँ ह्रीं ऋषभतीर्थंकरमुनींद्राय महाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान कल्याणक पूजन
(गीता) चौबीस जिनवर तीर्थकारी, ज्ञान कल्याणक धरं। महिमा अपार प्रकाश जग में, मोह मिथ्या तम हरं।। कीने बहुत भवि जीव सुखिया, दुःख सागर उद्धरं।
तिनकी चरण पूजा करें, तिनसम बने यह रुचि धर।। ऊँ ह्रीं श्री ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशति जिनेन्द्रभ्यः केवलज्ञान कल्याणक प्राप्ताः अत्र
अवतर अवतर सम्वौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्री ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशति जिनेन्द्रभ्यः केवलज्ञान कल्याणक प्राप्ताः अत्र
तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशति जिनेन्द्रभ्यः केवलज्ञान कल्याणक प्राप्ताः अत्र
मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
(चामरा) नीर लाय शीतलं महान मिष्टता धरे, गन्धशुद्ध मेली के पवित्र झारिका भरे। नाथ चौविसों महान वर्तमान काल के, बोध उत्सवं करूँ प्रमाद सर्व टाल के।।
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